भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बीसवीं किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

(जन्माष्टमी के पुण्य पर्व पर-कृष्ण के प्रति)

गहन अँधेरी अर्द्ध निशा में तुम ज्योतिर्मय रेखा बनकर,
हुए अवतरित देव! स्वर्ग से बन्दी मानव की पृथ्वी पर।
उमड़-उमड़ घनघोर घटाएँ छाई थीं इस विश्व व्योम में,
विद्युत का कम्पन भरता था कम्पन जग के रोम-रोम में,
सन्-सन् करता पवन,प्रलय का अंकन करता लहर-लहर पर,
उसी अँधेरी अर्द्ध निशा में तुम ज्योतिर्मय रेखा बन कर।
हुए अवतरित देव! स्वर्ग से बन्दी मानव की पृथ्वी पर॥
कारागृह की लौह-शृंखलाओं में जकड़े थे दो प्राणी,
अन्तर में सारी मानवता की लेकर दुख-भरी कहानी।
बाहर दानवता के रक्षक अट्टहास करते रह-रह कर,
उसी अँधेरी अर्द्ध निशा में तुम ज्योतिर्मय रेखा बन कर।
हुए अवतरित देव! स्वर्ग से बन्दी मानव की पृथ्वी पर॥
टिक न सकीं वे लौह-शृंखलाएँ मानवता के पैरों में,
गईं, वह गईं टूक-टूक होकर वे जमुना की लहरों में।
मौन-चमत्कृत बन्दीगृह की दीवारें यह दृश्य देखकर
उसी अँधेरी अर्द्ध निशा में तुम ज्योतिर्मय रेखा बन कर।
हुए अवतरित देव! स्वर्ग से बन्दी मानव की पृथ्वी पर॥