भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुआ को सोचते हुए / अर्पण कुमार
Kavita Kosh से
					
										
					
					वह विधवा थी 
लेकिन उसके पास 
तेरा परिवार था 
वह निःसन्तान थी 
लेकिन उसके पास तेरे बच्चे थे 
पिता !
भूलना मत 
जिद्दी अपनी उस बहन को 
वक़्त को झुठलाती 
जिसकी आत्मदृढ़ता से 
समय भी 
सशंकित हुआ
अकालमृत्यु मिली उसे 
जब उसका 
अपना बसा घर उजड़ा 
उस अभागी, निरंकुश 
गृहस्थिन को 
एक घर चाहिए था 
और 
उसने तेरा घर चुना 
माँ और हम सभी 
उकता जाते थे जिससे 
कोख-सूनी एकाचारिणी की 
वह स्वार्थ संकीर्णता 
तुम्हारे हित में होती थी 
अपना सबकुछ 
देकर भी 
रास नहीं आई 
तुम्हें वह 
पिता!    
कभी-कभी याद 
कर लेना 
अवांछित अपनी 
उस लौह-बहन को 
जो तेरे लिए लड़ी 
अन्त-अन्त तक 
निःस्वार्थ 
दुत्कारे जाने के बावजूद ।
	
	