भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुख़ार / वीरेन डंगवाल
Kavita Kosh से
मेरी नींद में अपना गरम थूथन डाले
पानी पीती थी एक भैंस ।
मैं पकता
हवा से सिहरते गेहूँ की तरह
धूप के खेत में ।
नींद सा कुछ दबाता
पलकों को
कलेजे को दबाती
एक मसोस ।