भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बुझते सूरज ने लिया फिर से संभाला कैसा / ज़ेब गौरी
Kavita Kosh से
बुझते सूरज ने लिया फिर से संभाला कैसा ।
उड़ती चिड़िया के परों पर है उजाला कैसा ।
तुमने भी देखा कि मुझको ही हुआ था महसूस,
गिर्द[1] उसके रुख-ए-रौशन[2] के था हाला कैसा ।
छट गया जब मेरि नज़रों से सितारों का ग़ुबार,
शौक़-ए-रफ़्तार[3] ने फिर पाँव निकाला कैसा ।
किसने सहरा में मेरे वास्ते रखी है ये छाँव,
धूप रोके है मेरा चाहने वाला कैसा ।
'ज़ेब' मौजों में लकीरों की वो गुम था कब से,
गरदिश-ए-रंग[4] ने पैकर को उछाला कैसा ।