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बुझते सूरज ने लिया फिर से संभाला कैसा / ज़ेब गौरी
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बुझते सूरज ने लिया फिर से संभाला कैसा ।
उड़ती चिड़िया के परों पर है उजाला कैसा ।
तुमने भी देखा कि मुझको ही हुआ था महसूस,
गिर्द<ref>चारों ओर</ref> उसके रुख-ए-रौशन<ref>चमकता हुआ चेहरा</ref> के था हाला कैसा ।
छट गया जब मेरि नज़रों से सितारों का ग़ुबार,
शौक़-ए-रफ़्तार<ref>गति का शौक़</ref> ने फिर पाँव निकाला कैसा ।
किसने सहरा में मेरे वास्ते रखी है ये छाँव,
धूप रोके है मेरा चाहने वाला कैसा ।
'ज़ेब' मौजों में लकीरों की वो गुम था कब से,
गरदिश-ए-रंग<ref>रंग का चक्कर</ref> ने पैकर को उछाला कैसा ।
शब्दार्थ
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