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बुझा है दिल भरी महफिल को रौशनी देकर / नज़ीर बनारसी

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बुझा है दिल भरी महफ़िल में रौशनी देकर
मरूँगा भी तो हज़ारों को ज़िन्दगी देकर

क़दम-क़दम पे रहे अपनी आबरू का ख़याल
गई तो हाथ न आएगी जान भी देकर

बुज़ुर्गवार ने इसके लिए तो कुछ न कहा
गए हैं मुझको दुआ-ए-सलामती देकर

हमारी तल्ख़-नवाई को मौत आ न सकी
किसी ने देख लिया हमको ज़हर भी देकर

न रस्मे दोस्ती उठ जाए सारी दुनिया से
उठा न बज़्म से इल्ज़ामे दुश्मनी देकर

तिरे सिवा कोई क़ीमत चुका नहीं सकता
लिया है ग़म तिरा दो नयन की ख़ुशी देकर