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बुड़की वाले दिन / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
बहुत भले लगते पापा को,
बुड़की वाले दिन
बुड़की वाले दिन होते थे,
लड्डू लैया के।
शक्कर ढले खिलोने मिलते,
चोर सिपहिया के।
चावल के मक्का के आटे,
के लड्डू बनते।
बड़ी कढ़ाई में झारे से,
झर-झर सेव झरते।
सुबह शाम दादी देती थी,
लड्डू छ: गिन गिन।
पापा कि आँखों में दिखता,
बचपन का संसार।
जिसके भीतर बहती दिखती,
नीली नदी सुनार।
बुड़की के दिन सुबह सबेरे,
सब नदिया जाते।
सबको पकड़-पकड़ दादाजी,
डुबकी लगवाते।
तन तो बस गीला होता था,
निर्मल होता मन।
शिवजी के मंदिर में चढ़ती,
थाली खिचड़ी की।
बहुत मांग होती थी उस दिन,
तिल के लड्डू की।
घर में पकती खिचड़ी गढ़िया,
घुल्ला सब खाते।
मुझे और दो लड्डू अम्मा,
बच्चे चिल्लाते।
बचपन की यादें पापा को,
आती हैं पल छिन।