भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुढ़शाला के बेयान / 3 / भिखारी ठाकुर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चौपाई

बुढ़शाला के कहीं कहानी। तेही के जानी करन समदानी॥
सरवन करी यह अमृत बाता। तेकरे लागी राम से नाता॥
पाव भर में कइलस बाईं। नव मास तहाँ रखली माई॥
करनी के फल कहिया मिली। मइया भइली कुत्ती तर के बिल्ली॥
मइया के दुख भइल अपार। कहला से ना पाइब पार॥
बुढ़शाला के रचना करीं। मइया के दुःख जल्दी हरीं॥
ना त टुटी माता के आस। कहियो एक दिन होई तलास॥
तबहीं खुब समुझबऽ तोता। रोअबऽ परदा भीतर अलोता॥
कहत ‘भिखारी’ दोऊ कर जोर। समुझ परी तब टपकी लोर॥
समुझ परी कहिया, लोर टपकी तहिया। लोर टपकी कहिया, बुढ़ापा आइ तहिया॥

प्रसंग:

युवावस्था में किसी को यह आभास नहीं होता है कि वह भी कभी बूढ़ा होगा और उसे भी उन्हीं परिस्थितियों का सामना करना होगा जो आज बूढ़े लोग कर रहे हैं। इसीलिए लोककवि आह्वान करता है कि सामूहिक चंदा एकत्र कर प्रत्येक गाँव में एक-एक बूढ़शाला की स्थापना हो और उसके संचालन का भार वह गाँव सामूहिक रूप से स्वीकार करें।

वार्तिक:

मन करीं चौहटा पर बइठ के रोई काहे, अइसन जगहा रोई कि दसगो लोग देखीत। पुछी कि काहे रोअत बाड़। तब कहब कि बेटा-पतोह दुःख देत बा। तब लोग बेटा-पतोह के धिरकारी। त हमा सुख मिली। बाकी केहू धिरकारी ना, केहू पुछी ना। अगर केहू पूछी, तब बूढ़ा-बूढ़ी के कहीं-‘तूँ बड़ा बेकार हवऽ भाई, ऊ बेचारा आपन इज्जत हुरमत खातिर देह तूर-तूर के ढेबुआ कमात बा। जे आइल-गइल हमरा ऊपर बा आ तूं रात-दिन उपदर मचवले रहेलऽ।’ बेटा-पतोह के धिरकारी केहू कइसे। अपना जमाना रहल हा, जब चलाना रहल, तूं ओह दिन केहू के बेटा-पतोह केअनीत देखके ना धिरिकरलऽ, त आज तोहरा परला पर कइसे धिरकारी। एह से मालूम होता जे हमनी का आज बूढ़ का सुख के ना उपाय करब, त एक दिन हमनियें का बूढ़ होखब जरूर। तब ई आफत हमनियों का ऊपर बजरी।

प्रसंग:

भिखारी ठाकुर अपने किसी भी कार्यक्रम का प्रारंभ सती पियनिया के प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करते थे।