भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुढ़ापा / नाथूराम शर्मा 'शंकर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कैसा कठिन बढ़ापो आयो।
बल बिन अंग भए सब ढीले, सुन्दर रूप नसायो,
पटके गाल, गिरे दाँतन को, केशन पै रंग छायो।
हाले शीश, कमान भई कटि, टाँगन हूँ बल खायो,
काँपे हाथ बोदरी के बल, डगमग चाल चलायो।
ऊँचो सुने धूँधरो दीखे, वस्तु-बोध हलकायो,
मन में भूल भरी त्यों तन में, रोग-समूह समायो।
डील भयो बेडौल, डोकरा, नाम खोय पद पायो,
नाना आदि बाल मण्डल में, नाना भाँति कहायो।
नातेदार कुटुम्ब परोसी, सबने मान घटायो,
कढ़त न प्राण पेट पापी न, घर-घर नाच नचायो।
पास न झँाकत पूत-पतोहू, पौरी में पधरायो,
बूँद-बूँद जल, टूक-टूक को, ताँस-ताँस तरसायो।