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बुढ़ापे का आगमन / तोताबाला ठाकुर / अम्बर रंजना पाण्डेय

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अष्टमी का अपराह्न जोमुना में स्नान को
उतरी जो निर्वस्त्र
बलि के महिषों के रक्त से भर गया मुख
पके बेरफल के रंग की भाँति
दीप्त था उस भिक्खु का रंग, बलिष्ठ वदन
ब्रह्मपुत्र के पाट जितना वक्षस्थल
साण्ड की भाँति कन्धे और अण्डकोश

'आनन्दभैरव है जा उसके निकट जा जल ही जल में'
एक तान्त्रिक ब्राह्मणी रक्त का तर्पण करते बोली
जल के भीतर ही भीतर श्वास साध पहुँची
उसके निकट

शीतल जल में भी उसके शरीर का ताप अनुभव हुआ
बहते जल में भी उसके शरीर की गन्ध
जो गर्भ की गन्ध से भरी थी
जो जननी के स्तनों की गन्ध से भरी थी
जो उसकी स्त्री के रज की गन्ध से भरी थी
जो चन्दन चर्चित थी

कण्ठ पकड़ पुतुल की भाँति उठा लिया उसने
प्राण का प्रवाह अवरुद्ध हो गया
नाभि भर गई प्राणों के कोलाहल से
पश्चात् पुनः पटक जल में, किसी उतारी
कुसुम माला की भाँति, चलता बना

निर्वस्त्र मैं पीछे गई
'आह्लादस्वरूपिनी है स्त्री जान ले तू'
थूककर मुख पर पलटा, तैरा, लँगोट कसी
अपना अन्तिम वस्त्र किसी शव पर डाल
हो गया अन्तर्धान

जान गई अब जरा आ गई
दिन जो प्रतिदिन और जर्जर कर के जाता है
फिर भी दूसरा दिन देखने का हम मानुषगण
सदैव लालच करते है
गलितदेह के किसी कामिनी के लिए लालच की भाँति
नाग के किसी दादुर के लिए लालच की भाँति