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बुढ़ा रहे गाँव / कुमार रवींद्र

युवा नए शहरों के फैल रहे पाँव
                    महलों के आसपास
                           बुढ़ा रहे गाँव
 
रोज़ कहीं कटती है
बरगद की डाल
या उजाड़ होती है
हारी चौपाल
 
खेतों में उगते हैं बँटे हुए ठाँव
 
पक्की मीनार रही
अमराई घेर
पोखर पर
रेत और गारे का ढेर
 
टूट रही पीपल की पुश्तैनी छाँव
 
काँपते शिवाले का
झंडा है मौन
देवी के चौरे को
 पूजे अब कौन
 
अँधे हैं सीमेंटी ढाँचों के दाँव