भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुतरू आरो कौआ / नवीन ठाकुर ‘संधि’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बीचोॅ टॉड़ पेॅ एक गाछ छेलै महुआ,
सांझ विहान काँव-काँव करै छै कौआ।

सब्भेॅ सब दिश में भागै छै देखतैं सूरज,
उत्तर, दखिन, पछिम आरो कोय-कोय पूरब।
कीड़ा-मकौड़ा खैतेॅ मतुर नै खैतेॅ मूँग, कलाय, उड़द,
छीनी केॅ रोटी खैतेॅ बुतरू रोॅ देखी-देखी सूरत।
हत्, हत् हल्ला करतेॅ माय बापेॅ बनाय छै हौवा,

बुतरू केॅ मीठोॅ-मीठोॅ गीत सुनाय छै,
भोरे सब्भै केॅ सब दिन शोर करी कौआं जगाय छै।
मतुर औरतें ओकरा पेॅ सब दिन चमकाय छै डौआ,

रजुवाँ कहलकै हम्में कौआ पेॅ करबै पंचायती,
कैन्हेॅ की नुनू रोॅ छीनी भागलै लैकेॅ चपाती।
एक दिन रोटी भात छींटी केॅ देलकै कौवा केॅ नेतोॅ,
येहेॅ सोची केॅ की कौवा रोॅ छीकै येहेॅ रैयतोॅ।
बनाय केॅ राखियो "संधि" अनाजोॅ रोॅ भरलोॅ झौवा