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बुद्धचरित / सप्तम सर्ग / भाग-2 / एडविन अर्नाल्ड / शुक्ल

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कपिलवस्तुगमन

परी नृप के कान में जब बात यह सब जाय
अश्वचालन में चतुर सामंत नौ बुलवाय
यह सँदेसो कहि पठायो अलग अलग सप्रीति-
“बिन तिहारे गए कलपत सात वत्सर बीति।
 
रह्यो निशि दिन खोज में सब ओर दूत पठाय,
चिता पै अब चढ़न के दिन गए हैं नियराय।
विनय याते करत हौं अब बोलि बारंबार,
जहँ तिहारो सबै कछु तहँ आय जाव कुमार।
 
राजपाट बिलात, तरसति प्रजा दरस न पाय।
अतिथि थोरे दिनन को हौं, मुख दिखायो आय।'
नौ दूत छूटि यशोधरा की ओर सों गे धाय
संदेस लै यह 'राजकुल की रानि, राहुल माय
 
मुख देखिबे के हित तिहारो परम व्याकुल छीन-
जैसे कुमुदिनी वाट जोहति चंद्र की ह्नै दीन,
जैसे अशोक विकाश हित निज रीति के अनुसार
पियराय जोहत रहत कोमल तरुणि- चरण- प्रहार।
जो तज्यों वासों बढ़ि पदारथ मिलो जो कोउ होय,
है अवसि तामें भाग ताहू को, चहति है सोय।”
 
तुरत शाक्य सामंत मगधा की ओर सिधारे।
पै पहुँचे वा समय वेणुवन बीच बेचारे
रहे धर्म उपदेश करत भगवान् बुद्ध जब।
लगे सुनन ते, भूलि संदेश आदि सब।

रह्यो ध्यान नहिं महाराज को कछु मन माहीं
और कुँवर की रानी हू की सुधि कछु नाहीं।
चित्रलिखे से रहे, सके नहिं वचन उचारी,
रहे अचल अनिमेष दृष्टि सों प्रभुहि निहारी।

मति गति थिर ह्नै गई सुनत प्रभु की शुभ बानी।
ज्ञानदायिनी, ओजभरी, करुणारस सानी।
ज्यों खोजन आवास भ्रमर कोउ निकसत बाहर,
लखत मालती फूल कहूँ छाए खिलि सुंदर,

औ पवनहुँ में मधुर महक तिनकी है पावत,
ऑंधी पानी राति ऍंधोरी मनहिं न लावत,
बैठत विकसित कुसुमन पै तिन अवसि जाय कै,
गहत मधुर मकरंदसुधा निज मुख गड़ाय कै,

त्यों पहुँचे ते सबै शाक्य सामंत तहाँ जब
बुद्ध वचन पीयूष पान करि भूलि गए सब,
रह्यो चेत कछु नाहिं कौन कारज सों आए।
भिक्षुसंघ मैं मिले जाय, नहिं कछु कहि पाए।
 
बीते जब बहु मास बहुरि नहिं कोऊ आयो
कालउदायी सचिवपुत्र को नृपति पठायो,
बालसखा जो रह्यो कुँवर को अति सहकारी,
जापै भूपति करत भरोसो सब सों भारी।
पै सोऊ ह्नै गयो भिक्षु तहँ मूँड़ मुड़ाई,
रहन लग्यो प्रभुसंघ माहिं घरबार विहाई।
 
एक दिवस ऋतु परम मनोहर रही सुहाई,
बोल्यो प्रभु के निकट जाय सो अवसर पाई-
“हे भगवन्! यह बात उठति मेरे मन माहीं,
एक ठौर को वास उचित भिक्षुन को नाहीं।

घूमि घूमि कै तिन्हैं चाहिए धर्म प्रचारैं।
भलो होय, प्रभु कपिलवस्तु की ओर पधारैं
जहाँ भूप तव वृद्ध पिता तरसत दर्शन हित
औ राहुल की माता दु:ख सों बिकल रहति नित।”

बोले तब भगवान् बिहँसि सब की दिशि हेरी-
“अवसि जायहौं, धर्म और इच्छा यह मेरी।
आदर में ना चूकै कोऊ मातुपिता के,
जो हैं जीवन देत, सकल साधन वश जाके,

जाको लहि नर चाहैं तो सो जतन सकत करि
जन्म मरण को बंधन जासों जाय सकल टरि।
लहै चरम आनंदरूप निर्वाण अवसि नर
रहै धर्म के पालन में जो निरत निरंतर,

दहै पूर्व दुष्कर्म, तार हू तिनको, तोरै,
हरुओ करतो जाय भार, पुनि और न जोरै,
होय प्रेम में पूर्ण दया दाक्षिण्य भाव भरि,
जीवन अपनो देय आप परहित अर्पित करि।

महाराज के पास जाय यह देहु जनाई
आवत हौं आदेश तासु निज सीस चढ़ाई।”
कपिलवस्तु में बात जाय जब पहुँची सारी,
अगवाई के हेतु कुँवर के सब नर नारी
अति उछाह सों करन लगे नाना आयोजन
भूलि सकल निज काम धाम, निद्रा औ भोजन।
 
पुरदक्षिणद्वार के पास घनो
अति चित्र विचित्र बितान तनो,
जहँ तोरण खंभन पै, बिगसे
नव मंजु प्रसून के हार लसे।
 
पट पाट के, कंचनतार भरे,
बहु रंग के चारहु ओर परे।
शुभ सोहत बंदनवार हरे,
घट मंगल द्रव्य सजाय धारे।
 
पुर के सब पंकिल पंथ भए
जब चंदननीर सों सींचि गए।
नव पल्लव आमन के लहरैं,
सुठि पाँति पताकन की फहरैं।
 
नरपाल निदेश सुन्यो सबने-
पुरद्वार पै दंति रहैं कितने
सजि स्वर्ण वरंडक सों सिगरे
सित दंत चमाचम साम धारे,
 
धुनि धौसन की घहराय कहाँ,
सब लेयँ कुमारहिं जाय कहाँ,
कहँ बारबधू मिलि गान करैं,
बरसाय प्रसून प्रमोद भरैं,
 
पथ फूलन सों यहि भाँति भरै
जहँ पाँव कुमार तुरंग धारै
धाँसि टाप न तासु लखाय परैं,
मिलि लोग सबै जयनाद करैं।
 
यह भाँति नरेशनिदेश भयो,
सब के हिय माहिं उछाय छयो।
दिन ऊगत नित्य सबै अकनैं
कहुँ आगम दुंदुभि बाजि भनैं।
 
धाय मिलन हित पियहि प्रथम धारि चाह अपार
गई यशोधरा शिविका पै चढ़ि पुर के द्वार।
जाके चहुँ दिशि लसत रम्य न्यग्रोधाराम,
जहँ सोहत बहु विटप बेलि वीरुधा अभिराम।

झूमति दोऊ ओर फूल फल सों झुकि डार,
हरियाली बिच घूमि घूमि पथ कढ़े सुढार।
राजमार्ग चलि गयो धारे सोइ उपवन छोर।
परति अंत्यजन की बस्ती है दूजी ओर,

पुर बाहर जे बसत बेचारे सब बिधि दीन,
छुअत जिन्हैं द्विज नाहिं मानि कै अतिशयहीन।
तिनहूँ बीच उछाह नाहिं थोरो दरसात,
इत उत डोलन लगत सबै ज्यों होत प्रभात।

घंटन को रव, बाजन की धुनि कहुँ सुनि पाय
लखत मार्ग में कढ़ि, पेड़न चढ़ि सीस उठाय।
पै जब आवत नाहिं कतहुँ कोउ परै लखाय
लगत झोपड़िन को सँवारिबे में पुनि जाय।

करत द्वार नित फेरि झकाझक झारि बहारि,
पोंछि चौखटन, लीपि चौतरन, चौक सुधारि,
पुनि अशोक की लाय लहलही कोमल डार
चुनि चुनि पल्लव गूँथत नूतन बंदनवार।

पूछत पथिकन सों निकसत जो वा मग जाय
“कतहुँ सवारी रही कुँवर की या दिशि आय?”
यशोधरा हू चाह भरे चख तिनपै डारि
पथिकन को उत्तर सुनती झुकि पंथ निहारि।
 
मुंडी एक अचानक आवत परयो लखाय
धारे वसन कषाय कंधा पर सों लै जाय।
कबहुँ पसारत पात्र जाय दीनन के द्वार,
पावत लेत, न पावत लावत बढ़त न बार।

ताके पाछे रहे भिक्षु द्वै औरहु आय
लिए कमंडल कर में, धारे वसन कषाय।
पै जो तिनके आगे आवत धारि पथतीर
ऐसी गौरवभरी तासु गति अति गंभीर,

फूटति ऐसी दिव्य दीप्ति कढ़ि चारों ओर,
ऐसो मृदुल पुनीत भाव दरसत दृगकोर
भिक्षा लै जो देन बढ़त दोउ हाथ उठाय
चित्र लिखे से चकित चाहि मुख रहत ठगाय।

कोऊ कोऊ धाय परत पाँयन पै जाय,
फिरत लेन कछु और दीनता पै पछिताय,
धीरे धीरे लगे नारि, नर, बालक संग
कानाफूसी करत परस्पर ह्नै कै दंग-

“कहौ कौन यह? कहौ, कछू आवत मन माहिं?
ऋषि तो ऐसो परो लखाई अब लौं नाहिं।”
चलत चलत सो पहुँच्यो ज्यों मंडप नियराय
खुल्यो पाटपट, यशोधरा चट पहुँची धाय।

ठाढ़ी पथ पै भई अमल मुखचंद्र उघारि
'हे स्वामी! हे आर्य्यपुत्र!' यह उठी पुकारि।
भरे विलोचन वारि, जोरि कर सिसकि अधीर
देखत देखत परी पाँय पै पथ के तीर।

जब दीक्षित ह्नै चुकी धर्म में राजवधू वह
एक शिष्य ने जाय करी प्रभु सों शंका यह-
“सब रागन सों रहित, वासना सकल निवारी,
त्यागि कामिनी परस कुसुमकोमल मनहारी
यशोधरा को करन दियो प्रभु क्यों आलिंगन?”

सुनत बुद्ध भगवान् वचन बोले प्रसन्न मन-
“महाप्रेम यों छोटे प्रेमन देत सहारो
सहजहि ऊँचे जात ताहि लै दै पुचकारो।
ध्यान रहै जो कोउ छूटि बंधन सों जावै
मुक्तिगर्व करि बद्ध जीव कबहूँ न दुखावै।

समुझि लेहु यह मुक्ति लही है जाने, भाई!
एक बार ही नाहिं कतहुँ काहू ने पाई।
जन्म जन्म बहु जतन करत औ लहत ज्ञानबल
आवत हैं जो चले, अंत में पावत यह फल।

तीन कल्प लौं करि प्रयास अति प्रबल अखंडित
बोधिसत्व हैं मुक्त होत जग की सहाय हित।
प्रथम कल्प में होत 'मन: प्रणिधन' श्रेष्ठतर।
बुद्ध होन की जगति लालसा मन के भीतर।

होत 'वाक् प्रणिधन' दूसरे कल्प माहिं पुनि,
'ह्नै जैहौं मैं बुद्ध' कहत यह बात परत सुनि।
लहत तीसरे कल्प माहिं 'विवरण' पुनि जाई
'अवसि होहुगे बुद्ध' बुद्ध कोउ बोलत आई।

प्रथम कल्प में रह्यो ज्ञान शुभ मार्ग गुनत सब,
पै ऑंखिन पै परदो मेरे परो रह्यो तब।
भयो न जाने किते लाख वर्षन को अंतर
'राम' नाम को वैश्य रह्यो जब सागर तट पर,
परति सामने स्वर्णभूमि दक्षिण दिशि जाके
निकसत सीपिन सों मोती जहँ बाँके बाँके।