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बुधवार पेठ की वेश्याएं / रंजना मिश्र

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उखड़ी पलास्टरों वाली दीवार बोसीदा पर्दों के पीछे बजती पेटी
और पुराने तबले की धमधमाती आवाज़ के बीच वे गाती हैं
वे गाती है सुन कर सीखी कोई ठुमरी
कोई दादरा कोई फ़िल्मी गीत
विलम्बित सुरों की पेचीदगी में नहीं उलझती वे
उन्हें पालने वाले राजा नहीं दूर के मोहल्ले से आया
कोई मजदूर कोई पियक्कड़ आवारा है
जिसकी देह उसके बस में नहीं
वे कहानियां सुनती सुनाती हैं एक दूसरे को प्राचीन दादियों की
जिन्हें घर बेदखल किया गया था गाने के लिए और झूम जाती हैं
हर घाटी अपना आकाश ढूंढ़ती भटकती है
फुसफुसाती हैं खिलखिलाती हैं
शाम होते ही अपने ग्राहकों से कहतीं
'बाबू ये हम ही थीं जो बचा कर रख पाईं संगीत को सबसे मुश्किल समय
हमारे ही आँगन से जाती है देवी की मिटटी पूजा के दिनों में '
कहते हुए अपने खुरदरे पैर समेट लेती हैं
बुधवार पेठ की रंडियां
क्या पता धृणा से या हिकारत से
बाबू मुंह बाएँ ताकता है और
उनके सुर में सुर मिलाता है ।


नोट : किताब की दुकानों, पुणे के प्रसिद्द दगडू शेठ गणपति मंदिर और इलेक्ट्रॉनिक सामान की दुकानों से भरी इस जगह को औरंगजेब ने सन १६६० में किसी और नाम से बसाया और पेशवाओं ने इसका नाम बुधवार पेठ कर दिया। शहर के मध्य स्थित यह जगह यौन कर्मियों के लिए भी जानी जाती है।