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बुनकर-2 / प्रेमचन्द गांधी
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पीढ़ियाँ गुज़र गईं हमारी
सूत कातते-कपड़ा बुनते
घुमाते रहे हम शताब्दियों तक चरखा
पर नहीं घूम पाया
हमारे जीवन का चरखा
पृथ्वी को लपेटने लायक
भले ही बुन लिया हमने कपड़ा
पर ख़ुद के लिए हमें कभी नहीं हो सका नसीब
चीथड़ों से ज़्यादा
हमारे ख़ून-पसीने की नमी पाकर
रूई बदल गई सूत में
हमारे कौशल से सूत ने
आकार लिया कपड़े का
हमीं ने बनाया रेशम
हमीं ने बनायी ढाका की मलमल
हमीं से सीखा गाँधी ने आज़ादी का मतलब
फिर पूरे देश ने जानी
बुनकर की अहमियत