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बुनियाद में शक तामीर में वहम डालते रहे / राजेश चड्ढा

बुनियाद में शक तामीर में वहम डालते रहे,
बरसों हम लोहा सोने की तरह ढालते रहे।

दोस्तों के चेहरों ने कुछ ऐसे भरम दिए,
हम आस्तीन में जहरी नाग पालते रहे।

अपनी हदों से ज्यादा हमने अपना जिन्हें कहा,
रिश्तों को वे भी भाप तक उबालते रहे।

लोगों ने जहां हया की चादर उतार दी,
हम सभ्यता के बीज वहीं डालते रहे।

तमाम रात पुराने दर्द से यूं ही नहीं कटी,
हर सुबह नया जख्म हम सम्भालते रहे।