भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुन्देलखण्ड के किसान / हरगोविन्द सिंह

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हम किसान बुन्देलखण्ड के हमें भूम या प्यारी है,
ई धरती पै जलम-जुगन सें हमनें काया गारी है।
जब औरन नें गंगाजल सें अपनी बगियाँ सींचीं जू,
तब पाठिन की जर सें हमनें स्रम की झिरें उलीचीं, जू;
निज की बिपदा तनक न सेंटी, हमें पिरानी पर-पीरा,
अपने दौरें मुरम बिछाई, बाँट दए बाहर हीरा;

मुरका-डुभरी भोग लगाकै, परसी सदा सुहारी है।
जब तुम ऊँघत बैठे-बैठे, खस की टटियन में प्यारे,
तब हम भेंटत लपट-घाम खें, दौर-दौर कै उघरारे;
साखन सें चल रही तपस्या, तपा तपत हो गए कारे,
अब हम ठाँडे़ रहत पछारूँ, जहाँ जुरत गोरे-नारे;
जहाँ कसौटी होत हिए की, बस वहाँ जीत हमारी है।

खेतन में जुन बहुएँ-बिटियाँ, मनभावन सावन गातीं,
समय परे पै बेइ अवन्नती, दुर्गा, देवल बन जातीं;
का चीन्हें इतिहास हमें यौ, टरकत पकरें बैसाखी,
कितने पले हमाए दोरें जमुन-नरमदा हैं साखी;
पिरलै की रातन में हमनें जियन-जोत उजयारो है।

जिननें सोसण करो हमारौ, बचीं न उनकीं रजधानी,
डेरा लद गए अँगरेजन के, बिला गए राजा-रानी;
काअत पेट दलाल आज जुन कारे धन के मतवारे,
आउन चहत काल की आँधी, उड़ जैहें सब अबढारे;

अपनी तौ हर नए भोर के स्वागत की तइयारी है।
हम किसान बुन्देलखण्ड के, हमें भू या पयारी है।।