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बुन्देली में चार कविताएँ / भगवत रावत

  • बुन्देली में चार कविताएँ / भगवत रावत

ईसुरी और रजऊ के नाम

(इसुरी बुन्देली के जनकवि थे। उनके नाम के साथ रजऊ का नाम घनानन्द की सुजान की तरह अपने आप जुड़ जाता है। रजऊ उनकी कविता का पर्याय बन गई। अपनी बोली के इस महान कवि को याद करते हुए बुन्देली में ये कविताएँ उनको और उनकी कविता (रजऊ) को समर्पित हैं)

(एक)
ईसुर
हम खाँ रजऊ दिखानी।

ऊसई हेरन-हँसन,
ऊसई मीठी बोली-बानी
उसई, अंग-अंग छवि,
जैसी तुमने कई बखानी।।
हमने नाम तुमरौ लओ सो,
मनई-मनई अकुलानी।
रै गईं धरती कोद हेरतीं,
मुख में आई न बानी।।
हम सोउ ठाँड़े रये कुआ पै,
बिन अँसुआ बिन पानी।
पूछत-पूछत पतौ कट गई,
तीन दिना जिंदगानी।।

( दो )
ईसुर
साँचे सबद तुमारे

की माटी की सिरज-सँवरे,
किन साँचन के ढारे।
किन हाँतन के पाले-पोसे,
किन पत्तन पै पारे।।
किन ललना के दूध पियाये,
कभऊँ न छीजे हारे।
आँख-कान सौं सूदे उतरें
जाँय रजऊ के द्वारे।।
हेरत-हेरत बाट,
छूट रये हाँतन के लिखना रे।
एक बेर तो आओ ईसुरी,
चलकें गाँव हमारे।

( तीन )
रजऊ जू
हम बिपदा के मारे।

बड़े भोर के निगे, और
अब होन चात औंदियारे।
लैबे-दैबे है कुछ नइयाँ,
केवल दरस तुमार।।
पत्तन-पत्तन ढूँड़ फिरे हम,
पाये न पार तुमारे।
हम हैं ईसुरी के हरकारे।।
जिन आँखन में बसे ईसुरी,
उनकी अलग छटा रे।
उन आँखन के एक बेर तो
खोलो अरथ किवारे।।

( चार )
रजऊ जू
हम घामन भये कारे।

जी आभा की करत बड़ाई,
ईसुर जैसे हारे।
देओ छाँयरी अपनी,
जी में फूलें सुकृत हमारे।।
बालापन में हमने मुख सें,
जिनके छंद उचारे।
उनई ईसुरी की हम परजा,
उनई के बोल बिचारे।।
उनकी आन बान सब उनकी,
उनई की मारन मारे।
एई घाम में सूकत राने
जौ लौं खुलें न द्वारे।।