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बुरे दिन / संजय चतुर्वेदी
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बुरे दिन
दिमाग़ से निकलकर
दिल में चुभते हैं
मरे हुए चूहे की गन्ध जैसे रहते हैं कमरे में
सिटी बस से उतरते हैं शाम को हमारे साथ
मकानों की खिड़कियों से झाँकते हैं
पेड़ों पर बैठकर रोते हैं रात को
एक दिन अचानक हमसे पूछते हैं
कितने दिनों से खुलकर हँसे नहीं तुम लोग
बुरे दिन चले जाते हैं
हम रहते हैं।