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बुरे वक़्त की अच्छी बातें / कुमार विक्रम

Kavita Kosh से
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सबसे अधिक हर्ष का विषय
यह होता है
कि बुरी ख़बरें आपके पास
फटकने नहीं दी जाती
कल शाम तक जिन सर्पों से
आपका दिल घबराता था
वो बुरे वक़्त की सुबह में
एक मामूली रस्सी से
प्रतीत होने लगते हैं
बुराइओं का अंत
कुछ इस तरह से हो जाता है
जिस तरह से रावण दहन के बाद
फ़रेब के ऊपर सत्य की विजय
धूमधाम से हो जाती है
और बच्चे के साथ
आइसक्रीम खाते हुए
आप वापिस घर चले जाते हैं
बेदाग़ बादशाहों के राज में
वाशिंग पाउडर वालों का
यह कहना कि दाग अच्छे हैं
ज़्यादा प्रासंगिक लगते हैं
चारों तरफ चीज़ें शीशे की तरह
साफ़ नज़र आने लगती हैं
और भ्रम की कोई गुंजाइश नहीं रहती
सबसे बुरा तो मुखौटा बनाने
और बेचने वालों का होता है
क्योंकि बुरे वक़्त में मुखौटा ओढ़ना
मुखौटा और वक़्त
दोनों की तौहीन होती है
लोगों के विचार
इतने एकरूप होते हैं
मानो आप कोई
बहुत बड़े अस्पताल या जेल
या फिर किसी सेना की बटालियन का हिस्सा हों
या साधु-संतों की किसी जमात में हों
जहाँ सब एक जैसे कपड़े पहन
स्वस्थ, स्वतंत्र, शांतिप्रिय एवं धार्मिक
चर्चाओं में सत्संग करते हों
ज़रूर किसी बुरे वक़्त में ही कबीर को
काशी की गलियों में
कोई बुरा नहीं मिला होगा
और उसने आज़िज़ आकर
लिख दिया होगा
'मुझसे बुरा न कोये'.
 
‘पब्लिक एजेंडा’ 2014