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बुरे वक़्त की रात में / मलय
Kavita Kosh से
बुरे वक़्त की रात में भी
जीता हूँ
सूरज की तरह
सामना करने से
भागकर
डूब नहीं जाता
अँधेरे में
बैठता नहीं
बढ़ता हूँ
अपनी ही हड्डियों की रगड़ से
उजेरा करता हूँ
दिन में
सिधाई की कूबड़ पर
कराह लेकर
सामने के पंजे मरोड़ता हूँ
इस रात और दिन में
अपने लिए कोई अंतर नहीं
अँधेरे की हर अक्ल में
काँटे की तरह गड़ता हूँ ।