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बुलडोज़र / केशव तिवारी
Kavita Kosh से
फट रही है प्रजातन्त्र की छाती
लोग ख़ुश हैं
निरंकुश सरकार को जिता रहे हैं
और सड़कों पर जुलूस निकल रहे है
न्याय लगभग पंगु
लोग ताली पीट रहे है
तानाशाह एक बार फिर प्रजातन्त्र
का जाप करते आ रहा है
और लोग विश्वास कर रहे हैं
घृणा की खेती बोकर देख रहा वो
बड़ी सतर्क नज़रों से
और लोग सींच रहे हैं
लहराते देखना चाहते हैं
इतिहास की गुफ़ा में घुसे
हिस्टीरिया के मरीज के तरह
चिल्ला रहे हैं
ये कैसा समय आ गया है
किस-किस संकट से बचते-बचाते
यहाँ तक पहु!ंची है जुम्हूरियत
धर्म और नस्ल की ध्वजा उठाए
बाकायदा जगह की चीन्ह पहचान के साथ
निकल चुका है बुलडोज़र
हज़ारों-हज़ार साल की संस्कृति को कुचलते
और लोग ख़ुश हैं ।