भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुलन्दी पे अपने सितारे न होते / सूरज राय 'सूरज'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बुलन्दी पर अपने सितारे न होते।
तो हम यूँ अंधेरों के मारे न होते॥

जो दुश्मन हमें दिल से प्यारे न होते।
तो हम दोस्तो तुमसे हारे न होते॥

ज़बुाँ की तरह झूठी होतीं जो आँखे
तो आँसू हमेशा ही खारे न होते॥

किसी का नहीं कोई होता जहाँ में
अगर आप सच में हमारे न होते॥

अदब ने ही बांधी है दुनिया, वगरना
समन्दर ही होते किनारे न होते॥

चिता भी अगर क़ब्र-सी होती गहरी
यूँ तानों के उसमें शरारे न होते॥

नमक-रोटी खाना न होता सियासी
तो जेबों में काजू-छुआरे न होते॥

जो पी लेते इक दिन नदामत के आँसू
शराबों से हर दिन गरारे न होते॥

पकड़ लेते उंगली तेरी नींद की गर
मेरे ख़्वाब यूँ बेसहारे न होते॥

नचाते उन्हें तीन बन्दर उन्हीं के
जो परलोक गांधी सिधारे न होते॥

न आता कभी आँख के मुँह में पानी
जो माज़ी ने आँसू बघारे न होते॥

न चढ़ते कभी क़ामयाबी की सीढ़ी
अगर माँ ने ज़ेवर उतारे न होते॥

हमे दर्दे- "सूरज" पता ही न चलता
अगर धूप में पल गुज़ारे न होते॥