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बुलबुले / हरीश बी० शर्मा
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काले झंडे, मुर्दाबाद की तख्तियाँ
कसकर बांधी मुट्ठियाँ
अतिरेक में इनक़्लाबी
लगता है दूर नहीं आज़ादी
असली आज़ादी
फिर सब सामान्य
नियंत्रण में लगता है माहौल
मिल जाते हैं अधिकार
मिल जाती है आज़ादी
हर बार मिलती है यह आज़ादी
असली आज़ादी
फिर एक दिन तख्तियाँ निकल आती हैं
मुट्ठियां भिंच जाती हैं
आज़ादी मांगी जाती है
पूछ लें-पिछली का क्या हुआ
जवाब होगा-खा-पी कर ख़त्म की