भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुलबुल ओ परवाना / सरवर जहानाबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गिरा रहा है तिरा शौक़ शम्अ पर तुझ को
मुझे ये डर है न पहुँचे कहीं ज़रर तुझ को
फ़रोग़-ए-शोला कहाँ और फ़रोग़-ए-हुस्न कहाँ
हज़ार हैफ़ कि इतनी नहीं ख़बर तुझ को
तड़प तड़प के जो बे-इख़्तियार करता है
नहीं है आग के शोला से आह डर मुझ को
ये नन्हे नन्हे पर ओ बाल ये सितम की तपिश
मिला है आह क़यामत का क्या जिगर तुझ को
क़रीब शम्अ के आ कर जो थरथराता है
नहीं है जान के जाने का ग़म मगर तुझ को
मिलेगी ख़ाक भी ढूँढे न मेरी महफ़िल में
सबा उड़ाए फिरेगी दम-ए-सहर तुझ को
समझ न शम्अ को दिल सोज़ आफ़ियत दुश्मन
जला के आह रहेगी ये मुश्त-ए-पर तुझ को
नहीं है अभी सोज़-ए-गुदाज़ के क़ाबिल
नहीं है इश्क़ की अर्ज़ ओ नियाज़ के क़ाबिल
तपिश ये बज़्म में फ़ानूस पर नहीं अच्छी
कि आग लाग की ओ बे-ख़बर नहीं अच्छी
कड़ी है आँच मोहब्बत की शम-ए-महफ़िल से
लगावटें अरे तुफ़्ता-जिगर नहीं अच्छी
तड़प तड़प के न दीवाना-वार शम्अ पे गिर
तपिश ये शौक़ की ओ मुश्त-ए-पर नहीं अच्छी
ये जाँ-गुदाज़ी-ए-सोज़-ए-वफ़ा सर-ए-महफ़िल
कहीं न हो तिरे जी का ज़रर नहीं अच्छी
लड़ा न शम्अ से आँखें कि है अदू तेरी
तिरी निगाह-ए-मोहब्बत-असर नहीं अच्छी
ये नन्हे नन्हे परों की तड़प ये बेताबी
हरीफ़-ए-शोख़ी-ए-बर्क़-ए-नज़र नहीं अच्छी
से पर समेट के फ़ानूस पर तिरा गिरना
ये बे-ख़ुदी अरे शोरीदा-सर नहीं अच्छी
चमन में चल कि दिखाऊँ बहार-ए-शाहिद-ए-गुल
नज़र फ़रेब हैं नक़्श-ओ-निगार-ए-शाहिद-ए-गुल
मैं बुल-हवस नहीं समझा है तू ने क्या मुझ को
पसंद शाहिद-ए-गुल की नहीं अदा मुझ को
फ़िराक़-ए-गुल में मैं मिन्नत-कश-ए-फ़ुग़ाँ हूँ दरेग़
ये दाग़-ए-सोज़-ए-जुदाई न दे ख़ुदा मुझ को
दिल-ए-गुदाख़्ता ले कर अज़ल से आया हूँ
बनाया बज़्म में है सोज़-आश्ना मुझ को
जले वो बज़्म में चुप-चाप और मैं न जलूँ
बईद इश्क़ से है हो ग़म-ए-फ़ना मुझ को
तिरी निगाह में जाँ-सोज़ है जो ऐ बुलबुल
वो आह आग का शोला है जाँ-फ़ज़ा मुझ को
खुला है तुझ पे अभी आह राज़-ए-इश्क़ कहाँ
तू बुल-हवस है तुझे इम्तियाज़-ए-इश्क़ कहाँ