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बुलाया नहीं मुझे किसी ने / कुमार विमलेन्दु सिंह

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शशि-खंड कह कर मुझको
उस रात जगाये बैठे थे तुम
नैराश्य कहीं था उस तल पर
दृग मुझमें गड़ाए बैठे थे तुम

ना मुझ-सा कहने वाला था
ना तुम-सा सुनने वाले
ना नींद आती थी मुझको
ना तुम भी थे सोने वाले

कभी नीर बहे, कभी कविता
अबाध ही रही शब्द-सरिता
फिर हाथ छुड़ा तुम चले गए कहीं
इससे ज़्यादा कुछ याद नहीं

कहता हूँ, मैं अब भी
और सुनते हैं शशि, निशा
बहती है आज भी तरणी
बुझती नहीं आज भी तृषा

मेरी ही ज्योति है तुममें
तुम मुझसे ले कर ही आए थे
हाँ, उसी दिवस की बात है
हम-तुम न जब पराए थे

अब रहा न सान्निध्य तुम्हारा
औ' जग की भाषा मैं भूल गया
निरंकुश बहता हूँ मैं अब
ना यही, ना वह कुल रहा

मिट-मिट कर पहुँचे जहाँ तुम
पहुँच कर "मैं" मिट जाता
मिल जाता नृप का-सा भाग्य
निज सम्मान पर खो जाता

यही सोच मैं खड़ा रहा
पर तुम सब चले गए
जीता तुमने जगत का मान
मैं और कविता छले गए

उन्माद जब मुझ-सा ना था
मेरे संग तब चले थे क्यों?
विद्रोह नहीं था जब मन में
कविता में तब ढले थे क्यों?

ले-लेकर मेरा ही ओज
टिमटिमाते थे तुम भी
अमानिशा के प्रहार से डर के
मेरे शरण आते थे तुम ही

बुझाया नहीं मुझे किसी ने
छोड़ दिया है बस अब जलना
अब उड़ने की सोच रहा हूँ
अत: बंद है रुकना, चलना