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बुला लो पास उजाले की वो नदी फिर से / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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बुला लो पास उजाले की वो नदी फिर से
कहो ग़ज़ल कि है अब शाम ढल रही फिर से

यहाँ अँधेरों के ताजिर ये चाहते ही नहीं
धुले ये रात की काजल—सी रौशनी फिर से

तमाम शहर ने फिर उसका एहतराम किया
तमाम शहर से छिन जाएगी ख़ुशी फिर से

परिन्दे अम्न के इस पर भी चहचहाने दो
ये शाख़ देखना हो जाएगी हरी फिर से

जहान भर के लिए ख़ुश्बुएँ लुटा लेना
हवा को बख़्श दो पहले—सी ताज़गी फिर से

‘द्विज’,आदतों से अँधेरे उखाड़ फेंकिएगा
घरों में आएगी पहले—सी रौशनी फिर से