भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बुहारन / मनोज कुमार झा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पंडाल उठा लिया गया, कुर्सियाँ हटा ली गईं
खंभे उखाड़ लिए गए
बचे दो चार
सारे पत्तल चुन लिए गए

सारे मजूर चले गए, थके थे
बाकी सबभी चले गए, सब बड़े थे
कुछ पत्ते गिरे हुए, पत्तलों से टूटे जूठन से गंदे
तुझे बुहारना ये पत्ते, रात गिर रही।