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बूँदों की आस / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’
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फटती धरा की पीर से
धरती का मन भी रो पड़ा
ऐ गगन तू तान ले घन
अब चुनर मेघों भरा।
मेरी छटपटाती आत्मा
तरसी है बूँदों को अभी,
इस लपलपाती धूप में
मृण, रेत बनती जा रही।
बंजर न बन जाए कहीं
जो कोख थी खुशियाँ भरी
कृषक के संताप सुन,
कर दे तू बूँदों की झरी।
ऐ गगन तू मीत है
हूँ बंदिनी मैं तो तेरी,
मैं जीव की जननी सही
दायित्व पर तेरी बड़ी।
वृष्टि से तू तृप्ति देकर
खेतों को अब सींच दे,
उठे लहलहाते यह फसल
भरे ताल, नदियाँ, पोखरी।