भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूँद भर पानी के खातिर / पाण्डेय कपिल
Kavita Kosh से
बूँद भर पानी के खातिर मन तरस के रह गइल
उमड़ के आइल घटा हालत प हँस के रह गइल
जब कि पथरा गइल कब से ई नजरिया हार के
आज उकठल काठ पर सावन बरस के रह गइल
हर जगह बालू के पसरल बा समुन्दर दूर तक
दूर से आइल ई पातर धार फँस के रह गइल
सोच में बीतत रहल बा जब कि जुग-जुग से समय
जिन्दगी फाँसी बनल गरदन में कस के रह गइल
लोग चारो ओर हमरा पर तरस खाइल बहुत
हाय, करइत साँप अइसन लाज डँस के रह गइल