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बूँद / अरविन्द श्रीवास्तव
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जब टपकी बूंद
फटीचर-बदहाल धरती पर
साथ-साथ फूटीं कोपलें
लहलहा उठी फसलें
झूमी धरती
कहा कथावाचक ने— देखो
धरती है कितनी सुन्दर
धूप और ऋतुएँ
मछली और समुद्र
चिड़िया ओर दरख़्त
मेला-ठेला
नट-नौटंकी
सबके सब हैं इसी पृथ्वी पर
काव्यवाचक सुनाता है पृथ्वी प्रेम के गीत
और तभी गर्भित बादल करते हैं प्रसव
बूँदें / फूस के छप्परों पर
अँधेरी रातों में
उठती है जुगलबंदी बूँदों की
किसी खाली बर्तन में
संगीत की स्वर-लहरियाँ
टप टपा टप टपाटप .....