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बूँद / सौरभ
Kavita Kosh से
एक ओस की बूँद
थी बैठी फूल की पँखुड़ी पर
धुँध उसे उड़ा ले गई ऊँचे आसमान में
घाटियों के पार
फिर भी वह मस्त रही
अब मौसम ने उसे बर्फ बना छोड़ दिया
वह गिर रही है
या उड़ रही है
या उड़ रही है हवा के साथ
अपने असँख्य साथियों को लिए
अब वह बर्फ का फाहा
गिरा है मेरी हथेली पर
देखते-देखते वह फिर बूँद बनी
इठला रही है मेरी हथेली पर
और मैं, निर्विचार हो गया हूँ।