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बूचड़खाना / आनंद खत्री
Kavita Kosh से
मेरे कसाई को मालूम है
जिस्म का कौन सा हिस्सा
किस काम का है।
और क्यूँ न हो
कटे हुऐ बदन को
बोटियों में बदलना
खाल को करीने से उतारना
अंतड़ियों को बाहर फेंकना
गुर्दे-कलेजी पे लगी चर्बी को
छीलना, साफ़ करना
रान और चाप की नज़ाकत
वो खूब समझता है।
मेरा रक्त-रेज़-कसाई
इस पेशे में, एक हुनर से
कला में पहचाना गया है।
इसी से मेरे क़ातिलकी
दुकान चलती है।
किसे पता था
खुले खलिहानों और
नम हरी दूब
पेड़ों की छाओं में
कूदें लगाते ये साल,
किसी दगा से
मेरे खरीदार के नाज़ के लिए
कभी ईद, होली, दिवाली को
कुछ गोश्त की बोटियों में
पहचानी जाएंगी।