भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बूझँगा, मैं अंगार / रामेश्वरलाल खंडेलवाल 'तरुण'
Kavita Kosh से
खनकीली स्वर्ण-चूड़ियों से वलयित
खराद-चढ़ी कलाइयों वाले हाथों में पकड़े चिमटे-से,
कोमल कपोल-पाली वाली,
मादक अपांग वाली
कोई कमनीया
सिगड़ी में से, एक दहकते अंगार को-
रसोई हो चुकने पर
धोवन के पानी में
लापरवाही से यों ही, बस यों ही चुमार देती है-
छन्न...न्न...न्न...
रूप के न जाने कौन से अनचीन्हे
सहज-हँसते, लोने, दिशाहीन हाथ-
मुझ लहकते तरुण अंगार को
एक दिन मरण-अंधार में
डुबो जायेंगे-
पीछे छोड़ते हुए एक आवाज़-
बची-रहती एक आवाज़-
छन्न...न्न...न्न...
जो सृष्टि-काल तक
झींगुरों की सीत्कार...झनकार में
लुढ़कती चली जायगी...चली जायगी...चली जायगी
पीछे नायलनिया कोई भीनी गंध छोड़ती-सी
किसी स्मृतिवान् की
सजल-कोमल पलकें झँपाने के लिए!