बूढ़ा बचपन / दीप्ति गुप्ता
भोले मुख पर छितरे बाल
उजली आँखें, मैले गाल
झोली में दो पैसे डाल
चल देती वह लघु कंकाल
हाथ जोड़ कर विनती करती
अंधी माँ की विपदा कहती
फिर भी जनता कुछ न देती
कैसे जीवन नैया खेती?
सोचे, सब कितने अनुदार
तभी, आया एक उदार
दिए रूपये दस, चल दी कार
खुश हो बैठी - किया विचार
भूख लगी थी, थी लाचार
उठा लोभ का ऐसा ज्वार
सोचा, जी भर कर खा जाए
झुणका - भाखर और अचार
तभी आ गई माँ की याद
अंधी आँखें, चढ़ता ताप
लेकर एक फूलों का हार
चढ़ा दिया गणपति के द्वार
करना था माँ का उपचार
लिए हाथ में पेरू चार
सोच रही थी क्या दूँ, माँ को
जिससे फिर न चढ़े बुखार
बचपन उसका छूट गया था
दूर कहीं अम्बर के पार
माँ की चिन्ता, घर की चिन्ता
और प्रतिदिन रोटी की चिन्ता
चिन्ताओं का ढेर अपार
नहीं था उनका पारावार
बुढ़ा गई थी उनमें फँस कर
वह नन्हीं बेबस लाचार!