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बूढ़ी माँ / शेखर सिंह मंगलम

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नाख़ूनों में मिट्टी जमी हुई
मुट्ठी भर मांस अपना
आठों पहर घिसती रहती है
आँखों में बुझते उम्र के चराग़ हैं
अंधेरे कमरे में दिनचर्या का
सामान ढूँढ़ती रहती है।

वक़्त-गुज़ारी कर रही
मेरी तुम्हारी माँ
खोखले मकान में
हिलती-डुलती दीवारों से
बातें करती रहती है
दीवारें कहाँ सुनती हैं मगर
बचपन में सुना था
दीवारों के भी कान होते हैं
मेरी तुम्हारी बूढ़ी माँ
इन दीवारों से
हाल चाल करती रहती है।

माँ खुद-कलामी है
अपनी ख़ैरियत नहीं मेरे तुम्हारे लिए
ज़ेरे लब दुआ सलाम करती रहती है
हम किस क़दर बे-रिश्ते हैं
जज़्बात समझते नहीं
बनावट में लिपटे लिपटाए
जहाँ तहाँ संबंधों में उलझे रहते हैं जबकि
माँ बेटे के एक दरस को तड़पती रहती है।

हम ग़ैरों से मिलते रहते हैं
एक दिन माँ सहसा चल बसती है
बिना कुछ कहे मगर संदक में
अपने किरिया करम से ज़्यादा
पैसे छिपाए रखती है कि
कहीं बाद मरने मेरा बेटा
परेशान ना हो जाए
सच है ना? माँ तो माँ है..?

दुनिया से चली जाती है मगर
बाद भी मेरी तुम्हारी माँ
अक्सर कमाल करती रहती है
दुःख में रहती साथ
सुख में गुमशुदा रहती है।

...मेरी तुम्हारी माँ
अंधेरे कमरे में दिनचर्या का
सामान ढूँढ़ती रहती है।