बूढ़े इंतज़ार नहीं करते / विमलेश त्रिपाठी
बूढ़े इंतज़ार नहीं करते
वे अपनी हड्डियों में बचे रह गए अनुभव के सफ़ेद कैल्सियम से
खींच देते हैं एक सफ़ेद और ख़तरनाक लकीर
और एक हिदायत
कि जो कोई भी पार करेगा उसे
वह बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाएगा
अपनी ही हथेली की लकीरों की धार से
और उसके मन में सदियों से फेंटा मार कर बैठा
ईश्वर भी उसे बचा नहीं पाएगा
बूढ़े इंतज़ार नहीं करते
वे काँपते–हिलते उबाऊ समय को बुनते हैं
पूरे विश्वास और अनुभवी तन्मयता के साथ
शब्द-दर-शब्द देते हैं समय को आदमीनुमा ईश्वर का आकार
खड़ा कर देते हैं
उसे नगर के एक चहल-पहल भरे चौराहे पर
इस संकल्प और घोषणा के साथ
कि उसकी परिक्रमा किए बिना
जो क़दम बढ़ाएगा आगे की ओर
वह अंधा हो जाएगा एक पारंपरिक
और एक रहस्यमय श्राप से
यह कर चुकने के बाद
उस क्षण उनकी मोतियाबिंदी आँखों के आस-पास
थकान के कुछ तारे टिमटिमाते हैं
और बूढ़े घर लौट आते हैं
कर्तव्य निभा चुकने के सकून से अपने चेहरे की झुर्रियाँ पोंछते
बूढ़े इंतज़ार नहीं करते
वे धुँधुआते जा रहे खेतों के झुरमुटों को
तय करते हैं सधे क़दमों के साथ
जागती रातों की आँखों में आँखें डाल
बतियाते जाते हैं अँधेरे से अथक
रोज़-ब-रोज़ सिकुड़ती जा रही पृथ्वी के दुख पर करते हैं चर्चा
उजाड़ होते जा रहे अमगछियों के एकांत विलाप के साथ
वे खड़े हो जाते हैं प्रार्थना की मुद्रा में
टिकाए रहते हैं अपनी पारंपरिक बकुलियाँ
गठिया के दर्द भुलाकर भी
ढहते जा रहे संस्कार की दलानों को बचाने के लिए
बूढ़े इंतज़ार नहीं करते
हर रात बेसुध होकर सो जाने के पहले
वे बदल देना चाहते हैं अपने फटे लेवे की तरह
अजीब-सी लगने लगी पृथ्वी के नक्शे को
और खूँटियों पर टँगे कैलेण्डर से चुरा कर रख लेते हैं
एकादसी का व्रत
सतुआन और कार्तिक स्नान
अपनी बदबूदार तकिए के नीचे
अपने गाढ़े और बुरे वक़्त को याद करते हुए
बूढ़े इंतज़ार नहीं करते
अपने चिरकुट मन में दर-दर से समेट कर रक्खी
जवानी के दिनों की सपनीली चिट्ठियों
और रूमानी मंत्रों से भरे जादुई पिटारे को
मेज़ पर रखी हुई पृथ्वी के साथ सौंप जाते हैं
घर के सबसे अबोध
और गुमसुम रहने वाले एक शिशु को
और एक दिन बिना किसी से कुछ कहे
अपनी सारी बूढ़ी इच्छाओं को अधढही दलान की आलमारी में बंद कर
वे चुपचाप चले जाते हैं मानसरोवर की यात्रा पर
याकि अपने पसंद के किसी तीर्थ या धाम पर
और फिर लौट कर नहीं आते...