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बृहस्पतिवार / मिक्लोश रादनोती

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न्यूयॉर्क के एक छोटे से होटल में ‘टी’ ने
फंदा लपेट लिया गर्दन में
बरसों भटकता रहा था वह बेवतन
और भटक पाएगा वह?

प्राग में ‘एम०जे०’ ने खुदकुशी कर ली,
वह अपने देश से भी निर्वासित था; और उस ‘आर०पी०’ ने -
उसने भी नहीं लिखा एक साल से; लेटा है शायद
सूखी जड़ों के नीचे।

वह कवि था जो स्पेन चला गया था।
उसकी आँखों पर कुहरा था शोक का।
उस जैसा कवि, जो आज़ाद होना चाहता है
क्या वह चीख़ सकेगा चमचमाते छुरे के सामने?

क्या वह चीख़ सकता है निस्सीम के सामने,
जिसकी सीमित पगडंडी अब ख़त्म है -
क्या इतना बंधा-कसा,
इस क़दर विस्थापित आदमी, मांगेगा अपना ‘जीवन’?

एक ऐसे वक़्त, जब मेमने काटते-झपटते हैं, और फ़ाख़्ता
ख़ून-भरे गोश्त पर जीते हैं,
और सड़क पर साँप सीटियाँ बजाते हैं
और हवा बहते-बहते दहाड़ रही है


रचनाकाल : 26 मई 1939

मारगित कोवैश के सहयोग से गिरधर राठी द्वारा अनूदित