भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेआवाज़ कोठरियाँ / नजवान दरविश
Kavita Kosh से
वह टँगी है अब भी काठ की एक टिकठी पर
और मैं कुल मिला कर महज चीख़ ही सकता हूँ
इन कोठरियों को कोई आवाज़ बेध नहीं पाती
रात-दिन
सर्दी और गर्मी में
वायु, अग्नि, पृथ्वी और जल में
अन्धेरे और उजाले में
अब भी टँगी है वह :
यह दुनिया टँगी हुई है काठ की एक टिकठी पर
अँग्रेज़ी से अनुवाद : राजेश चन्द्र