बेईमान बन जाने में / महेश सन्तोषी
ईमान का पाठ सीखते-सीखते तो
सारी उम्र बीत गयी
पर हमें थोड़ा सा भी वक़्त नहीं लगा
एकमुश्त बेईमान बन जाने में!
जब लोग हमें खरीदने आये
हिम्मत भी दी, हौंसले भी बढ़ाये
बोले, सुन लें, ये वो बोलियाँ हैं
जिन पर बड़ों-बड़ों ने अपनी आत्माएँ बेची हैं
जिस सुरंग से भी चाहें
सीधे राजमार्गों से ही जुड़ जाएँ,
बेचने वालों ने यहाँ आस्थाएँ भी बेची हैं
व्यवस्थाएँ भी बेची हैं
जहाँ पसीना ही पसीना था
एक-एक सीढ़ी से होकर ऊपर तक जाने में
वहाँ हमंे पहुंचाने आ गये कहार
बिठाकर चांदी के झूले, सोने के पालने में।
....एकमुश्त बेईमान बन जाने में!
जब तक हम धार के विपरीत बहे
सब सोचते रहे हम डूब क्यों नहीं गये?
पर जब हम धार के साथ बहे
एक-एक बूंद ने कहा, हम तुम्हारे साथ में हैं
पानी तो पानी अब तो बहती हवाओं तक में
घुल गयी है बेईमानी
फिर रोटियों के रुख हों या सांसों की ताज़गी के
सब थोक में उसी के हाथ में है,
जिनकी ऊँचाइयों के कल चर्चे थे
जिनकी परछाइयों तक के कद बड़े-बड़े थे
जब बिके हुए बोनों की कतार में दिखे
तो झिझक गये हमें चेहरे तक दिखाने में
....एकमुश्त बेईमान बन जाने में!
अगर हम गरीब थे तो बने रहते
दो वक्त की रूखी-सूखी रोटियाँ खाते
गुजरने को तो हम ज़िन्दगी के रास्तों से
एक फकीर की तरह भी गुजर जाते
चबा जाते हम अपनी आँख के आँसू
दो घूंट थे खून के वो पी जाते
पर एक दिन हमने रूह की रोशनी खोदी
बाजार के आगे खोल दिये बढ़ती भूख के खाते
वक्त की आखिरी दस्तकें हैं और हम डर रहे हैं
अन्दर के अँधेरों को बाहर लाने में!
पास में जमीर होता तो हम पास से देख लेते
पर अब देर नहीं दिखती
आखिरी अँधेरों के आने में
....एकमुश्त बेईमान बन जाने में!