बेई दाओ / परिचय
1949 में जब चीनी क्रांति हुई और बीजिंग में माओ अपना ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे, उनसे क़रीब हज़ार गज़ की दूरी पर दो माह का एक शिशु अपने पालने में झूल रहा था। उसके कोमल कानों में भी उस मातृभूमि की जयघोष गूंज रही थी। उस शिशु ने बड़े होकर जैसा जीवन जिया, उसमें इस संयोग के बिंबों को पढ़ा जा सकता है। उसे झाओ झेनकाई नाम दिया गया। अन्यमनस्क झाओ की पढ़ाई चीन की उस पीढ़ी की तरह बीच में ही रुक गई, जो 1966 की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान स्कूलों के बंद हो जाने के कारण घरों में ही रहे। सिर्फ़ तीन साल बाद सरकार ने युवाओं को रोज़गार देने की अपनी योजनाओं के तहत झाओ को दक्षिणी इलाक़ों में भेज दिया। वह तब तक कम्युनिस्ट सरकार का रेड गार्ड बन चुका था। रेड गार्ड्स लोगों के घरों में दबिश देते थे। झाओ ने भी सरकार की ब्लैकलिस्ट में रहे बुद्धिजीवियों के घरों में दबिश दी और वहां से किताबें उठाईं। बंद पड़ी लाइब्रेरियों को लूटकर किताबें पढ़ीं। लेकिन मुख्यत: इस दौर में उसने सड़क पर गिट्टी बिछाने वाले मज़दूर का काम किया। उसके बाद वह लुहार बन गया।
बरसों बाद वह लोहे को पीट-पीटकर आकार देने का काम अपने सपनों में देखता। अगले आकार वह बिना किसी चीज़ को पीटे दे देना चाहता था।
रेड गार्ड के रूप में वह किसी भी चीनी युवा की तरह क्रांतिकारी बन जाना चाहता था, लेकिन दक्षिणी इलाक़ों में मज़दूरी करते समय उसने पाया कि सरकार का प्रचार बहुत लुभावना है, जबकि यथार्थ कहीं ज़्यादा कड़वा। जिन इलाक़ों को समृद्ध कहा जाता है, वहां भी भीषण ग़रीबी है। वह उन देहातों के भीतर तक घुसता है, लोगों के जीवन और कठिनाइयों को जानता है और उसका मोहभंग होना शुरू होता है। अब उसमें क्रांति की आकांक्षा नहीं है, बल्कि वह लोगों को सच बताना चाहता है।
बरसों बाद जब यह लड़का बीजिंग लौटता है, तो कविता करना शुरू कर चुका है। यहां कुछ हमख़्यालों से उसकी दोस्ती होती है और जैसा कि चीनी भाषा में आम है, सारे दोस्त एक-दूसरे को साहित्यिक नाम या तख़ल्लुस भेंट करते हैं। ऐसा इसलिए भी था कि उन्हें अपनी सरकार से छुपकर कविता करनी थी। झाओ का नाम रखा गया - बेई दाओ। चीनी भाषा में इसका अर्थ है उत्तरी द्वीप, जिसे अवसाद, अकेलेपन और निर्जनता के लिए भी जाना जाता है। बेई दाओ ख़ुद भी ऐसे थे और उनका काव्य भी ऐसा ही था।
मित्रों की इस मंडली ने एक कविता पत्रिका शुरू की। वे कविताएं इतनी ग़ुस्सैल, व्यवस्था को बदल देने की अकुलाहट से भरी थीं कि असंतुष्ट युवाओं ने इन्हें ख़ूब सराहा। 1978 में बीजिंग में हुए छात्र आंदोलन में एक कविता लाखों पोस्टरों पर छपी। उसकी एक पंक्ति 'मैं - विश्वास - नहीं - करता' हर नौजवान की ज़ुबान पर थी। यह थी बेई दाओ की कविता 'जवाब'।
उसके बाद बेई दाओ और उनकी पीढ़ी के कवि पूरे चीन में प्रतिरोध की नई कविता के प्रस्तावकों के तौर पर प्रसिद्ध हुए। निश्चित ही चीन की सरकार बेई दाओ और समानधर्मा कवियों के पीछे पड़ गई। उनकी निगरानी होने लगी। उनकी कविताओं की स्कैनिंग होने लगी। कुछ ही समय बाद उनकी पत्रिका को सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया, लेकिन श्रेष्ठ कविता ज़मीन के नीचे लिखी जाती है और उसकी प्रतिध्वनि धरती पर जंगल की तरह पनपती है। बेई दाओ की कविता भी इसी तरह लिखी जाती रही और पूरे चीन में पढ़ी जाती रही। उनकी कविता के असर के बारे में प्रसिद्ध संपादक और अनुवादक एलियट वाइनबर्गर ने एक निबंध में एक चीनी किसान नेता की स्मृतियों का हवाला दिया है। 1989 के थिएननमन नरसंहार के बाद उस नेता का एक इंटरव्यू छपा था, जिसमें उससे साफ़ पूछा गया था कि आपकी शिक्षा इतनी कम है, फिर आपकी राजनीतिक समझ इतनी तीक्ष्ण कैसे है? उसका जवाब था, 'मैंने बेई दाओ की कविताएं पढ़-पढ़कर राजनीति की समझ बढ़ाई है।'
बेई दाओ और उन जैसे कवियों को चीन, अस्सी के दशक में उभरे छात्र-असंतोष का उत्प्रेरक मानता है। 1989 में जब बीजिंग में रक्तपात हो रहा था, बेई दाओ बर्लिन में कविता सुना रहे थे। जब उनके पास समाचार पहुंचा, तभी उन्हें यह समझ में आ गया कि अब उन्हें चीन में प्रवेश नहीं दिया जाएगा। और वही हुआ। उसके बाद वह निर्वासन में चले गए। यूरोप के कई देशों में रहे। उनकी पत्नी और बच्चे पर चीन से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा दी गई। सात साल तक उन्होंने अपने परिवार का चेहरा नहीं देखा। यही नहीं, यूरोप में वह चीनी बोलने के लिए तरस गए। उन्होंने एक कविता में लिखा भी है कि मैं आईने से चीनी भाषा में बात करता हूं।
विदेशों में उनके पास आमदनी का कोई ज़रिया नहीं था, तो वह कभी-कभार मिल जाने वाली लेखकीय शोधवृत्ति, राइटर्स इन रेज़ीडेंसी पर आश्रित रहे। साथ ही, दूर देशों में कविता पाठ से भी थोड़ी आमदनी होती रही। शुरुआती जीवन में लुहार का श्रमसाध्य काम और अब का अनिश्चित बौद्धिक काम विलोम की तरह उनकी कविता में जगह बनाता रहा। प्रतीक्षा उनकी कविता का मूल स्वर है। जब तक चीन में रहे, वह अपनी मातृभूमि के विशाल स्वप्नों के पूरा होने की प्रतीक्षा करते रहे। जब निर्वासन में गए, तो मातृभूमि उनके स्वप्नों में आती रही और वह घर लौटने की प्रतीक्षा करते रहे। हवा और सड़क ही दो रास्ते थे, जो उन्हें घर तक पहुंचा सकते थे। उन्होंने लिखा : हवा अगर घर की प्रतीक्षा है, तो सड़क यक़ीनन उस प्रतीक्षा की भाषा होगी।
बेई दाओ चीन की सरकार द्वारा समर्थित और स्वीकृत कविता की प्रणाली-परंपरा के विरुद्ध कविताएं लिख रहे थे। उन्होंने (और उनकी पीढ़ी ने) तथाकथित जनवादी-यथार्थवादी कविता, जो वर्ग-बोध के साथ-साथ राज्य-आराधना के अलंकारों का भी प्रयोग करती थी, का बहिष्कार किया, उसके खि़लाफ़ चीनी शास्त्रीयता और काव्य की लंबी चीनी परंपराओं को आत्मसात किया और उस भाषा की तरफ़ प्रस्थान किया, जो चीनी मास्टर्स सदियों पहले करते थे। साथ ही उन्होंने लोर्का, वैयेख़ो और चेलान जैसे कवियों का गंभीरता से अध्ययन कर उनके बिंब-विधान को अपने सांस्कृतिक धरातलों पर साधने का प्रयास किया। ऊपर से प्रकृति-प्रेम-कोमलता के दर्शन कराने वाली यह कविता अपने बिंबों और प्रतीकों में इतनी अमीर थी कि वह दुविधा में डाल देती थी। उनकी कविताएं शुद्ध राजनीतिक कविताएं हैं, लेकिन बेई दाओ के यहां राजनीति उनके निज से शुरू होती है। उन्होंने राजनीतिक चेतना को आत्मचेतना का गाढ़ा छलावरण दिया। यह एक ऐसा गुण था, जो उस समय की चीनी जनवादी कविता से सिरे से ग़ायब था। वहां आत्मचेतना का कोई अर्थ नहीं था। यह छलावरण ही बेई दाओ की कविता के विकास का पहला चरण है।
श्रेष्ठ कला, सपाट दृश्यों में नहीं रहती, वह हमेशा छल का कंबल ओढ़ती है। जो जैसा दिख रहा है, असल में वह वैसा है नहीं। महान सत्य और श्रेष्ठ कला अपने व्यवहार में एक जैसे होते हैं। सत्य भी अमूमन वह नहीं होता, जो धरातल पर दिख जाता है। सत्य भी छलावरण यानी कैमोफ्लेज में ही वास करता है। यह अनटेम्ड होने का सुख नहीं है, बल्कि यह संधान की चुनौती है।
चीनी भाषा अपनी धरती की तरह ही बेशुमार अक्षरों से आबाद है। ये अक्षर मिलकर ऐसे शब्द बनाते हैं, जो किसी चित्र की तरह दिखते हैं। बने हुए उन शब्दों के एक से ज़्यादा अर्थ होते हैं। कुछ अर्थ उनकी ध्वनि से बनते हैं और कुछ उनके चित्र से। कुछ अर्थ सबको पता होते हैं और कुछ अर्थ हमेशा लापता होते हैं। चीनी भाषा अपनी अक्षर-शब्द-बहुलता के बाद भी ऐसे कई शब्दों से भरी हुई है, जिनका सही अर्थ, वाक्य और संदर्भ को पूरा पढ़े बिना नहीं जाना जा सकता। बेई दाओ को जो भाषा अपने आसपास की हवा से मिली, उसका एक लाभ यह भी रहा कि उन्हें बहुअर्थी होने के लिए ज़्यादा दूर नहीं जाना पड़ा। उन्होंने एक शब्द उच्चारा और अलग-अलग लोगों ने उसका अलग-अलग अर्थ समझा। इससे संभवत: उनके कवि ने यह जाना कि कवि के पास सिर्फ़ शब्द होते हैं, अर्थ हमेशा दूसरों के पास होते हैं। कवि अपनी काया में एकल होता है, दूसरे अपनी उपस्थिति में हमेशा बहुल होते हैं। बेई दाओ की कविता बहुलता पर एकलता के आवरण की कविता है।
बेई दाओ की कविता छवियों से ज़्यादा उनके विलोम की कविता है। वह हर छवि को उसके विलोम में जाकर देखते हैं। जैसे देह देखने के लिए वह छाया देखेंगे। जल छूने के लिए वह हिम छुएंगे। जैसा पुराने चीनी मास्टर ली पाई और तू फू करते थे। जैसे पॉल चेलान, लोर्का और वैयेख़ो करते थे। ऐसा करने से कविता की ऊष्मा बेमायने ही बाहर नहीं निकल जाती, बल्कि उसे किसी इंसुलेटर-सा आवरण मिल जाता है। यह कविता के भीतर एक हॉटपॉट की संरचना जैसा है, जिसमें अंदर खाना गरम रहता है, लेकिन बाहर से तापमान का अंदाज़ा नहीं होता। उसकी गर्मास की अनुभूति के लिए आपको हॉटपॉट का ढक्कन खोलना ही होगा।
बेई दाओ पीड़ा के घनीभूत के कवि हैं। भाषा के भीतर एक भावनात्मक लेबर कैंप की पुनर्रचना उनके कवि का अभीष्ट है। वह पीड़ा के महाद्वीप के मानचित्र का अ-सीमांकन करते हैं। अनुभव और प्रयोग का एक ही पंक्ति में विरेचन करते हैं। पीड़ा के अंतर्लोक तक, उसके भूगर्भ तक पहुंचने का साहस निर्वासन से आता है और निर्वासन महज़ एक राजनीतिक कार्रवाई नहीं है। यह राज्य आप पर भौतिक तौर पर भी थोप सकता है और ऐसे हालात भी बन सकते हैं कि वह अधिभौतिक स्तर पर आपके भीतर बन जाए। निर्वासन का अर्थ है अपने सबसे क़रीबी 'परिवेश के आत्म' की तिलांजलि। उसके बाद भी अपनी भाषा में लिखना, लिखते रहना इस निर्वासन का निषेध है। भाषा ही कवि का महाद्वीप होती है। कवि के पास कोई गांव, क़स्बा, शहर, क्षेत्र, प्रांत, देश नहीं होता। वह कभी इन जगहों की कविता नहीं लिखता। इन सबकी स्मृति व अनुभव की कविता ज़रूर लिख सकता है। वह प्रथमत: और अंतत: भाषा के भीतर निवास करता है, क्योंकि भाषा ही उसके सांस्कृतिक कूट या कल्चरल कोड को उस तक पहुंचाती है। भूगोल कवि की स्मरा का आग्रह है। यहां स्मरा यानी स्मृति का स्मरण।
बेई दाओ की कविताओं में प्रतीकों का गहरा प्रयोग है। बिंब, दृश्य, स्टिल लाइफ़, कल्पनाशीलता, रुकी हुई उड़ानें, उड़ती हुई स्थिरताएं ये सब इनकी कविताओं में अनिवार्य रूप से आते हैं। उनकी कविताओं के असली अर्थ तक पहुंचना बहुत मुश्किल है, लेकिन वे अपने समग्र प्रभाव में इतनी चमकीली, द्रविल, गर्वीली, अबूझ किंतु मित्रवत् हैं कि वे इस मिथ को ही तोड़ देती हैं कि क्या किसी कविता को पूरा समझना ज़रूरी है?
क्या कविता को भाषा के परे जाकर नहीं पढऩा चाहिए? क्या कविता को अर्थ की शय्या पर लेटना चाहिए? क्या सृष्टि का हर रहस्य खुल जाना चाहिए? त्वचा का क्या अर्थ है?
यह कि वह बाक़ी अवयवों को छिपाए-थामे रखती है? कंटेनर है? यदि त्वचा न हो, तो क्या शरीर का पूरा सामान बाहर बिखर जाएगा? भीतर एक निर्मिति है, संगति है, सारे अंग आपस में जुड़े हुए भी हैं। फिर भी त्वचा सबको कवर किए रखती है? तो त्वचा का अर्थ क्या है? क्या त्वचा का वही अर्थ है, जो जठर का अर्थ है? धमनियों के अर्थ से अलग है वह?
क्या त्वचा एक काव्य है?
अर्थ बुद्धि की अय्याशी है। बेई दाओ की कविता इस अय्याशी को उकसाती भी है और उसकी सीमा का बोध भी कराती है। यह शब्द और अर्थ की कविता है- शब्दार्थ की कविता। यहां शब्द हमेशा अल्पमत में हैं, कई बार निर्वासित भी हैं, लेकिन साम्राज्य अर्थ का है। दोनों में हमेशा द्वंद्व होता है। शब्द यहां अर्थ को लगातार ललकारते हैं। ऊपर जो बहुलता पर एकलता के आवरण की बात कही है, उसके मायने भी यही हैं कि उनकी कविता कम शब्दों के सहारे बड़े अर्थ खड़े करने का हुनर है। यह कम डग में ज़्यादा दूरी पार करने का हुनर है। जब आपके डग कम होंगे, और दूरी ज़्यादा पार करनी है, तो डग अवश्य ही लंबे होंगे। बेई दाओ के यहां एक पंक्ति और दूसरी पंक्ति के बीच जो लंबा अंतराल दिखता है, अर्थों और छवियों के मायने में, उससे कई लोगों को लग सकता है कि इन दोनों छवियों का आपस में कोई मेल ही नहीं है, कवि कैसे इसे इस्तेमाल कर रहा है और कैसे उसे वैध माना जा सकता है, तो इसका एक साधारण-सा कारण ही यही है कि उनके डग लंबे होते हैं। आम कवि जिस दूरी को दस डग में पार करेगा, बेई दाओ उसे एक डग में करेंगे। इस तरह बीच के नौ डग कविता से अनुपस्थित हो जाएंगे। तब वे दृश्य के बाहर होंगे, कविता के बाहर, और सुधी पाठक अपने विवेक से जान लेगा कि बीच के ये नौ डग तो कवि ने पार कर ही लिए हैं, तभी दसवें तक पहुंचा है। यह विवेक पाठक के पास होना चाहिए।
इसीलिए मेरी नज़र में बेई दाओ की कविता पाठकों पर अतिशय विश्वास की कविता है। इसीलिए वह पूरे यक़ीन के साथ लंबे डग भरते हैं। जिन कवियों में अपने पाठकों की क्षमता पर विश्वास नहीं होता, वे हर पंक्ति को कविता के भीतर ही औचित्य प्रदान करने की तार्किकता से मल्ल करते हैं और अंतत: हास्यास्पद अनावरण की आवृत्ति करते हैं।
अर्थबहुलता का एक अर्थ यह भी होता है कि आप अर्थों से परे जा रहे हैं, लेकिन इसका यह अर्थ क़तई नहीं होता कि इसमें अर्थहीनता या निरर्थकता की ओर कोई प्रस्थान है। यह कला की अभिव्यक्ति के सूत्र को अनायास ही न्यूनतम प्रयास की ओर ले जाने का उपक्रम है। हमारे यहां कविता को तीर की तरह इस्तेमाल करने की आदत है। कविता से एकदम स्पष्ट होने और एकदम स्पष्ट अर्थों की मांग की जाती है। दरअसल, यह मास कम्युनिकेशन के दुराग्रहों में से है। कविता संप्रेषणीयता के नियमों से संचालित नहीं होती।
बेई दाओ को राजनीतिक कवि माना जाता है, लेकिन वह ख़ुद अपने बारे में कहते हैं, 'जब मुझे लोग ख़ूब पढ़ते हैं, तो मुझे कई बार संदेह होता है कि ऐसा साधारणीकरण क्या आ गया है? मुझे पता है कि मेरी कविता को ग़लत समझे जाने की पूरी आशंका है, लेकिन तब मैं अपने शब्दों के इस्तेमाल के प्रति और सजग हो जाता हूं। मैं प्रतिरोध का कवि हूं, लेकिन मैं क्रांतिकारी नहीं हूं। मैं किसी भी कि़स्म की राजनीतिक विचारधारा का प्रवर्तक कवि नहीं बनना चाहता। मैं भाषा की एक नई शैली रच रहा हूं, अभिव्यक्ति का एक नया तरीक़ा। और कुछ नहीं।'
बेई दाओ की यह स्वीकारोक्ति उनकी काव्य-आकांक्षाओं को स्पष्ट कर देती है। सहज संप्रेषित होना उनकी कविता का अनिवार्य गुण नहीं है, अभीष्ट गुण भी नहीं। एक ऐसे समय में जहां सबकुछ आसान है, विश्लेषित है, मीडिया हर चीज़ का अर्थ बता देने को अकुला रहा है, घटनाएं होने के क्षण-भर बाद ही जिनका अर्थ बता देने की होड़ लगी हुई है, बेई दाओ की कविता अपने पाठक से कहती है कि मेरे साथ थोड़ी देर रुको। कुछ पल बिताओ और जल्दबाज़ होने की दुनियादारी से दूर हो जाओ।
ऐसे जल्दबाज़ समय में वह कविता क़तई नहीं लिखी जानी चाहिए, जिसमें प्रवेश के लिए पाठक को उसके द्वार पर दो पल ठिठकना भी न पड़े। बेई दाओ की ये गूढ़-गंभीर कविताएं हमारे हड़बड़ी से भरे समय की प्रतिस्पर्धा का निषेध है। यह हमारे समय की हड़बड़ी पर ली गई एक आपत्ति भी है।
सरलता का आग्रह तभी होता है, जब आप अर्थ के साथ विहार नहीं करना चाहते। जब आपमें समय नहीं होता, धैर्य नहीं होता, ठहरने का अवकाश नहीं होता, ऐसा समय सत्ता और बाज़ार के लिए बहुत लाभप्रद होता है। वे दोनों इस समय को चिरंतन रखना चाहते हैं। बेई दाओ की कविता सत्ता और बाज़ार की ऐसी गुप्त कुत्सा का प्रतिरोध करती हैं। इसीलिए वह अदृश्य की संरचना करते हैं। इसे अदेखे का सौंदर्यशास्त्र कहा जा सकता है। यह देखना भी दिलचस्प है कि प्रतिरोध का कवि प्रतिरोध के प्रोटोटाइप को ही ध्वस्त कर देता है। यह उनकी नव्यता है।
जिस कवि की कविताओं को राजनीतिक आंदोलनों में ईंधन की तरह इस्तेमाल किया गया हो, वह ख़ुद को राजनीतिक कवि नहीं कहना चाहता। यहां वीस्वावा शिम्बोर्स्का की याद आ जाती है। वह दैनंदिन राजनीति के हर पक्ष को अपनी कविता में छूती थीं, लेकिन ख़ुद को राजनीतिक कवि नहीं मानती थीं। कोई अनिवार्य नियम नहीं है, लेकिन बेई दाओ की कविता को अगर एक रेखा में देखा जाए, तो जो पड़ाव-बिंदु बनते हैं, वे क्रम से इस तरह हैं- प्रतिक्रिया, राजनीति, प्रेम, दर्शन। कविता के भीतर अनुभूति और दर्शन को गूंथना कवि की महत्तम परिपक्वता का परिचायक होता है। वही कविता इतिहास में सबसे लंबे समय तक सरवाइव करती है, जिसमें दोनों तत्वों का सही समावेश हो। दान्ते, कालिदास से लेकर बोर्हेस, नेरूदा तक इसके उदाहरण हैं।
कविता निजी आवरण में सार्वजनिक स्मृति है और कवि जनता की स्मृति का पहरुआ है। भौतिक व सामाजिक स्तर पर सत्ता, अनुभव और स्मृति दोनों का विलोपन कराती है। हर सत्ता चाहती है कि उसके नागरिक का अनुभव-संसार इतना विशद हो कि वह उस ज़ख़ीरे से ही दिग्भ्रमित हो जाए। चूंकि बिना स्मृति के व्यक्ति अपने अनुभव का विश्लेषण नहीं कर सकता, इसलिए उसकी स्मृति का ही हरण कर लिया जाए। यह अकारण नहीं है कि अब सभी जगहों पर यह कहा जाने लगा है कि जनता की स्मृति बहुत कमज़ोर होती है। यह अपने आप नहीं हुई है। इसमें सत्ताओं का योगदान है। चीन चाहता है कि उसके नागरिक थिएननमन को विस्मृत कर दें। भारत चाहता है कि उसके नागरिक 1975 और 1992 भूल जाएं। अमेरिका चाहता है कि वाटरगेट और इराक़ भुला दिया जाए। फिर यही सत्ताएं अपने लाभ के लिए सार्वजनिक स्मृतियों का आवाह्न भी करती हैं। जैसे इस समय अमेरिका चाहता है कि उसके लोग ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया 1939 की आर्थिक मंदी को याद करे।
कहने का अर्थ यह कि व्यक्ति के अनुभव और स्मृति को भी सत्ताएं संचालित करने का प्रयास करती हैं। उसी का प्रतिरोध करने के लिए कवि बार-बार कुछ छवियों को दोहराता है। वह अपने लिए अपनी ही भाषा के भीतर अपने लिए ऐसे शब्द चुनता है, जिससे एक नई दिखने वाली भाषा तैयार हो सके। भाषा एक राजनीतिक औज़ार है, जिसका कवियों से भी ज़्यादा मारक प्रयोग सत्ता-सरकारें करती हैं। विटगेंस्टीन ने कहा था, 'भाषा राजनीति है।' यानी हम भाषा के साथ जैसा प्रयोग करते हैं, अपने लिए जिन शब्दों को चुनते और उनके अर्थों में इज़ाफ़ा करते चलते हैं, वही हमारा राजनीतिक रुख़ होता है। सत्ता की भाषा और कवि की भाषा नाम से एक हो सकती है, लेकिन असल में कभी एक नहीं होती। इसलिए बेई दाओ कहते हैं, 'मैं भाषा की एक नई शैली रच रहा हूं, अभिव्यक्ति का एक नया तरीक़ा। और कुछ नहीं।'
यह भाषा के वाहन पर बैठ सक्रिय राजनीति में शिरकत करना है।
जैसा कि रोलां बार्थ फ़ोटोग्राफ़ी के बारे में कहते हैं- 'तस्वीर हमेशा अदृश्य होती है', कविता के बारे में भी कहा जा सकता है कि कविता हमेशा अशब्द होती है। यह शब्दों की चहारदीवारी के बीच बना हुआ एक शब्दहीन आवास है। जैसे ईंटों की एक चहारदीवारी है। वह ईंटविहीन जगह को घेरने के लिए बनती है। दीवारों के भीतर कुछ नहीं होता, स्पेस को घेरा जाता है। ईंटें उस वातावरण को पकड़ नहीं सकतीं, बस घेर सकती हैं। उसी तरह कविता भी शब्दों के बीच पकड़ी नहीं जा सकती, शब्द महज़ कविता के उस स्पेस को घेर सकते हैं। कोई मुट्ठी वातावरण को नहीं पकड़ सकती, लेकिन अंजुलियां अर्घ्य की मुद्रा में फैला दी जाएं, तो उन पर वातावरण को रखा ज़रूर जा सकता है।
उनकी कविता निर्वात को स्थान देने की कोशिश है। रिक्तता को माप लेने की आदिम कीमियागरी से भरी हुई।
बेई दाओ की कविता शब्द की सत्ता का शिरोधार्य है और सत्ता हमेशा अपनी सीमा की विवशता में होती है। सत्ता का निरंकुश व्यवहार यही दर्शाता है कि निरंकुशता भी एक सीमित विवशता है।
कवि भाषा का सारथि है। शब्द उसका रथ हैं। वह रहता भाषा के भीतर है, लेकिन महान कविताएं भाषा के भीतर नहीं लिखी जातीं। बस, वे भाषा के वाहन पर चलती हैं। भाषा के भीतर पढ़ी जाती हैं।
कविता एक विपश्यना है, जिसमें आप देह के भीतर रहते हुए विदेह होते हैं, अंतर्यात्रा की शुरुआत होती है और वह वस्तुजगत, भावजगत, मनोजगत और जगदातीत की यात्रा बन जाती है। शब्दों से बनी देह के भीतर की गई विपश्यना कविता की संज्ञा पाती है। यह संज्ञा के उच्चांक और संज्ञाहीनता के न्यूनांक के बीच की जाने वाली निरंतर आवाजाही है। ऐसी ही किसी स्थिति में शब्दों का मानचित्र ग़ायब हो जाता है, अर्थों की रेखाएं भी ग़ायब हो जाती हैं। अंत में एक अनुभूति बची रह जाती है, जो शब्दातीत है।
हर कविता अपने साथ ऐसी ही शब्दातीत अनुभूति लेकर चलती है। वही उस कविता का सर्वोच्च अंक होता है या भाषा के भीतर प्राप्त कविता का ऑर्गेइज़्म होता है। हर कविता का शीर्ष बिंदु चरम-कामसुख की तरह है। अच्छी कविताएं आपके साथ यात्रा करती हैं, तो सिर्फ़ ऑर्गेइज़्म की इसी अनुभूति के साथ या इसी के रूप में।
कुछ लोग कहते हैं कि अच्छी कविता वह है, जिसकी पंक्तियां आपको याद रह जाएं। यदि ऐसा है, तो वह कविता का नहीं, पाठक की स्मृति का गुण है। कुछ लोग कहते हैं कि अच्छी कविता वह है, जो पाठकों की ज़ुबान पर चढ़ जाए। यह भी कविता का नहीं, उसमें प्रयुक्त भाषा, लय और संगीत का गुण है। कुछ कहते हैं कि अच्छी कविता वह है, जिसके शब्द भले याद न रहें, लेकिन उसका अर्थ पाठक को याद रहे। अर्थ तो बुद्धि है। वह भी सापेक्ष है। जिसकी जितनी बुद्धि होगी, वह कविता का उतना अर्थ ग्रहण करेगा। पर यह भी ज़रूरी नहीं कि हर कविता अपना वही अर्थ उच्चारित करती हो, जो वह सच में हो और जिससे पाठक भी एकाकार हो सके। इसलिए अर्थ का साथ आना कविता का नहीं, व्यक्ति का गुण है।
(ग़ालिब इसी तरह के कवि थे। वह अर्थ की मरीचिका रचते थे। उनके एक ही शेर को आनंद में भी उद्धृत किया जा सकता है और शोक में भी। और दोनों ही जगहों पर उसका उद्धरण वैध होगा। यही अर्थबहुलता और भाषा के भीतर ऑर्गेइज़्म की प्राप्ति ग़ालिब की महान शक्ति है।)
फिर वह कौन-सी कौन-सी चीज़ है, जो अच्छी कविता के भीतर होती है और पढ़े जाने के बाद अपने पाठक के साथ यात्रा करती है?
वह शब्दातीत है। वह भाषा के भीतर वास करने वाली 'अनुभूतिजन्य (किंतु अनुभूत नहीं) निरपेक्षता' है। शब्दातीत यदि शब्द की पकड़ में आ जाए, तो उसका शब्दातीत होना बंद हो जाएगा। निरेपक्षता में यदि दूसरा कोण आ जाए, तो वह सापेक्ष हो जाएगी। निरपेक्षता जितनी क्षणभंगुर मरीचिका है, उतनी ही दीर्घजीवी भी है। जब तक आप उस तक नहीं पहुंचते, वह दीर्घजीवी होती है। जैसे ही आप उस तक पहुंच जाते हैं, उसका निरपेक्ष होना ख़त्म हो जाता है।
यह स्पर्श से मिली मृत्यु है। यह दृष्टिपात से मिला विलोप है। यह सुनते ही मिली अश्रव्यता है। यह इंद्रियों को चुनौती देता इंद्रियातीत है।
ओक्तावियो पास की पंक्ति का स्मरण हो आता है, 'कविता पढऩा आंखों से उसे सुनना होता है। कविता सुनना आंखों से उसे देखना होता है।' पास यहां कविता के संदर्भ में इंद्रियों को उनके मुख्य कार्य-व्यवहार से च्युत कर देते हैं। इंद्रियच्युत होना, इंद्रियातीत होने के मार्ग की शिला है।
सारी कलाएं इसी निरपेक्षता की ओर प्रस्थान की महत्वाकांक्षी होती हैं। कविता इस प्रस्थान की सबसे मुखर प्रस्तावक है। और यह बेई दाओ की कविता के प्रधान गुणों में से है।
क्या इस निरपेक्षता को कभी पकड़ा जा सकता है?
एक उदाहरण आता है।
जैसे मूर्च्छा होती है। व्यक्ति मूर्च्छित है, इसलिए गतिहीन है। स्थिर है। जड़ है। लेकिन उसके मूर्च्छित होने के बाद भी उसके भीतर सबकुछ चल रहा है। देह का अंदरूनी कारोबार अबाधित है। यानी मूर्च्छा कुछ विशेष इंद्रियों के निष्क्रिय हो जाने की दशा है। यानी मूर्च्छा का अनुभव एक इंद्रियातीत अनुभव है। मूर्च्छा की स्मृति नहीं होती। जहां इंद्रियां निष्क्रिय हो जाती हैं, वहां अनुभव का लोप होता है। अनुभव का लोप होते ही स्मृति का लोप होता है। कविता अनुभव और स्मृति दोनों के मिलने से बनती है।
फिर दो लुप्त तत्व किस जगह आपस में मिलते हैं? वही निरपेक्षता का बिंदु है। इसी जगह तक पहुंच पाना कला का सबसे बड़ा संघर्ष है।
चूंकि अनुभव और स्मृति की अनुपस्थिति और विलोप कविता का प्रधान गुण भी होता है, जैसा कि हम अनकहे के सौंदर्यशास्त्र के रूप में हमेशा चर्चा भी करते हैं, तो इन दोनों विलुप्त तत्वों का मेल भी कविता के भीतर ही होता है।
मूर्च्छा एक गतिहीनता है, जो अंदरूनी गतियों का कंटेनर है, तो भाषा भी एक गतिहीनता है, जो कविता के भीतर की गतियों को कंटेन करके रखती है।
स्थिरता गति का आवरण है।
यानी जो चीज़ बाहर से स्थिर दिख रही है, वह भीतर से अत्यंत गतिमान है। उसका बाहर से स्थिर दिखना ही उसके गतिमान्य का प्रमाण है। जैसे एक पत्थर बाहर से स्थिर दिख रहा है, लेकिन उसके अंदर ढेर सारी गतियां हैं, अनएक्स्प्लोर्ड गतियां।
बेई दाओ की कविता ऊपर से जितना स्थिर दिखती है, ठंडी और शांत दिखती है, अंदर से वह उतनी ही गतिमान है।
चेहरे की भावहीनता भावों की अभिव्यक्ति पर किया गया सबसे श्रेष्ठ नियंत्रण है। यह अभिव्यक्ति की साधना है। और बेई दाओ इसके अद्वितीय साधक हैं।
अनुपस्थिति का अर्थ ही यही है कि उस वस्तु का अभाव, जो पहले उस दृश्य में थी, जिसका होना सम्मत और दृश्यमान था। जैसे कोई बच्चा स्कूल में अनुपस्थित है। यानी कल वह उपस्थित था, आज नहीं है। यानी अनुपस्थिति, उपस्थिति की तार्किक परिचायक है। गारंटर है। यानी कल वह कक्षा में उपस्थित था, आज नहीं है, लेकिन आज वह अन्य की स्मृति में उपस्थित है। जो बच्चा कभी स्कूल गया ही नहीं, वह कभी स्कूल से अनुपस्थित नहीं हो सकता।
इसी तरह कविता के भीतर अनुपस्थिति के भाव का अर्थ ही यही है कि वह आस्वादक की स्मृति और कल्पना में उपस्थित है, उसे सम्मत तौर पर काव्य में प्रस्तुत दृश्य में होना चाहिए था, लेकिन वह नहीं है। यदि उस तत्व की उपस्थिति पाठक के ज्ञान, कल्पना व स्मृति में है ही नहीं, तो कविता के भीतर उसकी अनुपस्थिति को वह पाठक नहीं पकड़ पाएगा।
इसीलिए कविता द्विज है। उसका जन्म दो बार होता है। एक कवि के छूने से, दूसरा पाठक के छूने से। ऐसे में वाल्ट व्हिटमैन की वह प्रसिद्ध उक्ति याद आती है- 'मैं और मेरा पाठक दोनों मिलकर कविता लिखते हैं।'
इसे इस तरह भी देख सकते हैं- मैं मूर्त हूं, पाठक अमूर्त है। यानी कविता की रचना 'आत्म के मूर्त' और 'अनात्म के अमूर्त' के मेल से होती है।
जो हमारी बुद्धि, ज्ञान व कल्पना से बाहर का तत्व है, उसे रहस्य कहते हैं, लेकिन रहस्य कभी निरपेक्ष नहीं होता।
क्या कविता के भीतर घटने वाले इस ऑर्गेइज़्म को रहस्य कह सकते हैं?
स्वयंभू होना रहस्य से परे है। स्वयंभू होने की प्रक्रिया ज़रूर रहस्य कहला सकती है। ऐसा कह सकते हैं कि इस ऑर्गेइज़्म तक पहुंचने की प्रक्रिया रहस्य हो सकती है, लेकिन इस चरम-कामसुख को रहस्य भी नहीं कह सकते। यह उससे भी परे है।
यह अनुपस्थित तत्व आस्वादन के बाद ही अनुभूत हो सकता है और यह अनिवार्यत: अवर्णनीय अनुभूति है।
एक साधारण-सा उदाहरण लेते हैं- चीनी का स्वाद क्या है? मीठा। मीठा क्या होता है?
मीठा अवर्णनीय है। कोई भी स्वाद अवर्णनीय होता है। वर्णन के लिए हम निजी प्रयोग और निजी अनुभव में जाते हैं। चीनी के दानों को जीभ पर रखकर घोलना और रस ग्रहण कर लेना प्रयोग है। उसकी मिठास के निष्कर्ष पर पहुंचना प्रयोग से प्राप्त अनुभूति है। स्वाद उस अनुभूति की स्मृति है। परंतु इस अनुभूति की कोई परिभाषा नहीं है। इसके पास कोई तर्क नहीं है। इस प्रयोग का 'अंतिम' मिठास की अनुभूति है। उसका मीठा होना एक स्वीकृत और अभ्यस्त अंतिम है, लेकिन वह वास्तविक अंत नहीं है। क्योंकि प्रयोग, तर्क व अनुभूति की शृंखला में तीसरा बिंदु सीमा के पार चला जाता है, जिसके लिए परिभाषा का संधान नहीं हुआ है। अंत वहां नहीं होता, जहां वस्तु ओझल हो जाती है। बल्कि ओझल हो जाना इस बात का प्रमाण है कि आगे और भी दूरी है, दृष्टि की सीमा से परे। इस अनिर्वचनीयता को देखते हुए कहा जा सकता है कि-
अंतिम के बाद भी, हमेशा, एक अंत होता है। उसकी उपस्थिति ऐसी अश्रुत, अदृष्ट उपस्थिति है, जो विलोमों के अपने साधारण समीकरणों से गुज़रकर अनुपस्थिति कहलाती है।
कविता के भीतर यह गुण 'अंतिम के बाद का अंत' है। यही अनुपस्थित अंत उस कविता का ऑर्गेइज़म होता है और वही पाठक के साथ यात्रा करता है। यह श्रेष्ठ कविताओं का अवश्यंभावी गुण है।
बेई दाओ की कविताएं 'अंतिम के बाद के अंत' की प्रामाणिक कविताएं हैं। समकालीन विश्व कविता में ऐसे कवि अत्यंत विरल हैं, उनका सर्वस्वीकृत हो जाना तो और भी विरल है। इसी 'अंतिम के बाद के अंत' का गुण है, जिसका विकास उनकी कविता अत्यंत सहजता से करती हैं, क्योंकि उनकी कविता एकल अर्थ की चिंता में झुर्रियां नहीं पैदा कर लेती, और वह अर्थ की बहुलता से संकुचित या आक्रांत भी नहीं होती। इसीलिए वह शब्दों के अल्पमत से अर्थों के साम्राज्य को चुनौती देते हैं। यह गुण, संभव है कि, स्वयं कवि को भी न पता हो।
बेई दाओ जैसा ईमानदार कवि बाज़ दफ़ा इसे स्वीकार भी करता है, 'अपनी कविताओं के सारे अर्थ ख़ुद मुझे भी नहीं पता होते। कई बार मेरे गंभीर पाठक उनका अर्थ बताते हैं। और वही पाठक बाक़ी सबके लिए पुल बन जाते हैं।'