बेक़दरा / राजेश शर्मा ‘बेक़दरा’

जब तक रहा
सिर्फ बेक़दरा रहा
अब जब वो जाने लगा
सिर्फ धुँआ-धुँआ
नजर आने लगा
जैसे ही वो गया
सब कहने लगे
लो जी ये गया
वो गया
इधर गया
उधर गया
हां!
अच्छा था
सच्चा था
अब गया तो गया
क्या कीजिये
लाख समझाया था
फिर भी
कहाँ माना था
खुद की प्यास में
शामिल करना
चाहता था
ले मिटा ले अबअपनी अतृप्ति!,
कोई क्यों चले साथ तुम्हारे?
समाज,
मर्यादा,
दुनियादारी,
कुछ होती है कि नहीं?
बड़ा आया था
बड़ी बड़ी बाते करने,
इतना भी नहीं सोचा
यहाँ पत्थर में,
देवता नहीं मिलते,
ये चला था इंसानोमें देवता ढूंढने
लो अब मर गया न?
हो गयी न तस्सली
बस अब पड़ा रह
इस मिट्टी मेँ अकेला
बहुत चला था
प्रेम!
समर्पण!
बड़ी बड़ी बातें करने

जब तक रहा
सिर्फ बेक़दरा रहा...

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