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बेकार पड़ती चीज़ें / संजय कुंदन
Kavita Kosh से
वह जो मन की चहचहाहट पर गुनगुनाता था
मन की लहरों में डूबता-उतराता था
पकता रहता था मन की आँच में
वह जो चला गया एक दिन
मन के घोड़े की रास थामे
साँवले बादलों में न जाने कहाँ
वह मैं ही था
विश्वास नहीं होता
यह इसी जनम की बात है।