भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बेखटके / सुदेश कुमार मेहर
Kavita Kosh से
तुम्हारे होठों के ऊपर किनारों पर उगे रोयें,
वही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके,
तुम्हारी हसलियों से जो उभर आते हैं वो गड्ढे
वही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके,
तुम्हारे शाने पे उजली चमक सी टिक के बैठी है,
तुम्हारे कान की लौ पे किरन जो आ के लेटी है
ज़माने की रवायते और तश्बीहें न मानेंगीं,
तुम्हारी नींद में डूबी हुई आँखें न जानेंगीं,
कि ख्वाबों में तुम्हारे ही मेरे सब रतजगे अटके
यही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके,
वही हैं, जान जिन पर मैं लुटा सकता हूँ बेखटके