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बेघरी है, बे-ज़री है, नातवानी और है / रमेश तन्हा

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बेघरी है, बे-ज़री है, नातवानी और है
हाले-दिल कहने को ये आंखों का पानी और है।

कोख से शब की नये सूरज का होता है जनम
मौत क्या है नींद में इक ज़िन्दगानी और है।

पत्थरों की ज़िन्दगी क्या ज़िन्दगी होती नहीं
मुंजमिद शोलों की क्या कोई कहानी और है।

सांस लेने , खाने पीने, ज़िंदा रहने के सिवा
आदमी की इक हयाते-जाविदानी और है।

रोज़ जीने के लिए है, रोज़ कक मरना यहां
और उसके बाद मर्ग-ए-नागहानी और है।

आंसुओं से या लहू रोने से बुझती है कहां
प्यास धरती की बुझा दे जो वो पानी और है।

मैंने तरजीहात में ज़र को चुना तौफ़ीक़ पर
मेरे इसियां की ये इक ज़िंदा निशानी और है।

मंज़िलों को जा ही लेती हैं, मुसल्सल, कोशिशें
लेकिन इसमें भी ज़रा सी सावधानी और है।

कोई खुश होकर भी कब खुश रह सकता है दोस्तो
शाद होना और शय है शादमानी और है

ज़ात को अपनी मुसल्सल आंकने के बाद भी
मेरे पूरे 'मैं' की बाकी तर्जुमानी और है।

तेरी मेरी कुरबतों के सिलसिलों के दरमियाँ
मरहला बाक़ी अभी इक इम्तिहानी और है।

यूँ तो इमकानात की भी हद नहीं कोई मगर
ला-मकां की वुसअतों की बे-करानी और है।

मेरी बर्बादी में कुछ तो आसमां का हाथ था
उस पे कुछ दोस्तों की मेहरबानी और है।

मौजे-दरिया की रवानी है समंदर तक फ़क़त
तबअ-ए-मौजूं की मगर 'तन्हा' रवानी और है।