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बेचारी गरीब गाय / सुधा चौरसिया
Kavita Kosh से
सदियों से खूटे में बँधी हो
भरपेट भोजन मिल जाता है
और आनंद से जुगाली करती हो
रे गरीब गाय!
तुमने उसे नियति समझ ली है
क्यों तुम इतनी बेचारी हो
सोचने दो मस्तिष्क को
उबलने दो खून को
हो जाने दो बगावत
घर-आँगन में
कबतक बँधी रहोगी
ईंट गारे के घर में
एक घर, जहाँ से तुम खदेड़ी जाती हो
एक घर, जहाँ तुम जला दी जाती हो
तौलो अपने पंखों को
आकाश तुम्हें भी आमंत्रित करता है
धरती तुम्हारे पैरों को भी चाहती है
तुम जगो! तुम जगो!!
संसार का सबकुछ
तुम्हारे लिए भी है...