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बेचारे ये बच्चे / अर्चना अर्चन
Kavita Kosh से
वो अक्सर उकता जाते हैं
जब पाते हैं खुद को
साइन / कॉस थीटा
की ज़ंजीरों में
जकड़ा हुआ
सिर पर झूलती है
पायथागोरस की थ्योरम
हर घड़ी /
हर सांस के साथ
फेफड़ों में भर लेते हैं
लीनियर इक्वेशंस
वो बड़बड़ाते हैं नींद में
पिरियॉडिक टेबल /
और हर निवाले के साथ गटकते हैं
केमिकल रिएक्शन्स
इलेक्ट्रिक करेंट दौड़ता रहता है
सोते-जागते जेहन में /
सपनों में चढ़ते हैं वह
हर रात
परसेंटेज का पहाड़
खुद का आज
मशीन बना लेते हैं
सफल जीवन जीने की आस में
बेचारे ये बच्चे!