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बेचैनी / विजेंद्र एस विज
Kavita Kosh से
कई दिनों से
पन्ने पलटे नहीँ
सारे सफेद से पड गये है
कुछ धुँधले भी...
जैसे,
कभी कुछ लिखा ही न गया हो...
जाने कब रंगे जायेंगे
लाल, पीली, नीली
और हरी स्याही से...
कभी कुछ अख्स उभरते तो हैं
पर गड्ड-मड्ड हो जाते हैँ
एक पल मेँ...
कोई भी शब्द एक
सीधी लकीर पर नहीँ दौडते
कभी कुछ चलते तो है
पर थक-कर चूर हो
आधे रस्ते से वापस आ जाते हैँ
मै इन्हे पकडना चाहता हूँ
उँगलियो से इन्हे छूना चाहता हूँ...
इन पर अपने निशान छोडना चाहता हूँ..
पर मेरे हाथ लगाते ही यह
छुई-मुई से मुरझा जाते हैँ...