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बेजान बुत / लता सिन्हा ‘ज्योतिर्मय’

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भाग-1
वह बुत-सी पड़ी
नितांत चेहरे की हंसी
कोई छीन ले गया था कहीं.....
सौम्य, मगर भयाक्रांत
आँखों में विसर्जित विष
जिसे पीकर भी
नहीं निगल पाई वेदना
टपकती रिसती लहू सी
गर्म संवेदना....

सर्द सफेद...
बदन की सिलवटों में
दरिंदगी के पंजों के निशान
मानो बर्फ की
कोमल कार्पेट पर
अभी-अभी भेड़िए ने
फाड़ डाला हो नन्हें
खरगोश को
चटकते लहू के
धब्बे-सा दागदार
कोमलांगी का अंग-प्रत्यंग
चिथड़ों में संभालती
अपना वजूद।

सफेदपोश समाज में
जिसकी बेचारगी ने
उसे बना दिया है
और भी लजीज
उन भूखे भेड़ियों की
नजर में
जो चादर ताने
शराफ़त का
रहते हमारे बीच....
उफ्फ्.... कैसे रेंग पाएगी
इस सामाजिक दलदल में
जोंक....... जो इन्हीं नमी में
मुँह दबाए...

दुबके हैं नितांत
अवसर की तलाश में
जो बिना आभास के
समा जाएंगे जेहन में
चूस लेंगे पोर पोर......
ओहहह..... जख्मों को चाटते
हर टीस में गोते लगाते....
रग-रग को खखोड़ते...
हड्डी तक...
निगल जाने को आतुर
कैसे बचा पाएगी वजूद.....??

भाग-2
वह बचा लेगी....!!
निश्चित ही बचा लेगी
अपना वजूद...
दरिंदगी के निशां नोंचकर
अपना भविष्य सोचकर
कायरों को...
बीच बाजार में लाकर
उसके नपुंसकता की
धज्जियां उड़ा कर
उस भेड़िये के लिए...
शेरनी बनकर
जिंदा गोश्त के लिए...
टपकते लाड़ वाले जीभ को
जड़ से खींचकर.....

भूखी आँखों के गड्ढों में
अपनी एड़ियां धंसाकर....
तब करेगी वह... तांडव
रुद्र, प्रचण्ड रूपधारण कर
समाज को अब
देवी की तरफ नज़र
उठाने वाले दुष्कर्मी
चंड-मुंड के लिए
वही संहारक रूप में अवतरित होना
आवश्यक है....
नितांत आवश्यक...
कोई दया नहीं
सिर्फ क्रोध...
वही क्रोध....
चामुण्डे... वही क्रोध...!