भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

बेजुबानों की जुबान लाल सिंह दिल / रौनकी राम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

लाल सिंह दिल अन्तिम सांस तक अपने आसपास की शोषक व्यवस्था की बारीकियों का पर्दाफ़ाश करते रहे। संघर्षों से भरे अपने जीवन में जो कुछ उन्होंने अनुभव किया, उसे अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने कविताओं को अपना माध्यम बनाया।

क्रान्तिकारी कवि लाल सिंह दिल (11 अप्रैल, 1943 – 14 अगस्त, 2007) ने पंजाब में 1960 के दशक के उत्तरार्ध में समानता, आज़ादी और सामाजिक न्याय के लिए शुरू हुए संघर्ष (जिसे नक्सलवादी लहर कहा जाता है) पर अपनी कविताओं के माध्यम से अमिट छोड़ी। वे अपने नाना के गाँव घुँघराली सिक्खाँ में पैदा हुए थे। यह गाँव चण्डीगढ़ से लुधियाना जाने वाले राजमार्ग पर समराला नाम के एक क़स्बे के नज़दीक है।

उनका जन्म एक रामदासिया चमार परिवार में हुआ था। तब रामदासिया चमार और अन्य दलित परिवारों के पास अपना पेट पालने के लिए न तो खेती की ज़मीन थी और ना ही अन्य कोई साधन। अपने समुदाय के अन्य लोगों की तरह, दिल का परिवार भी रोटी के लिए गाँव के किसानों के खेतों में मज़दूरी करता था। खेती का मौसम न होने पर ये भूमिहीन दलित निर्माणस्थलों आदि पर मज़दूरी करके अपनी रोजी-रोटी चलाते थे। दिल के पिता रौनकी राम जीवनभर दिहाड़ी मज़दूरी करते रहे। गायत्री राजवाड़े के साथ बातचीत में दिल ने बताया था कि एक समय उनकी दादी केवल एक पैसा कमाने के लिए सारा दिन चक्की में गेंहू पीसा करतीं थीं। दिल के शब्दों में — “शाम को हम सब अपने कपड़े झाड़ते, उनमें गेहूँ के जो दाने फँसे होते थे। उन्हें इकठ्ठा कर हम उन्हें पानी में घोलकर पीते और फिर सो जाते” (यह ब्यौरा पत्रकार निरूपमा दत्त ने 13 मई 2007 को दिल के नज़दीकी मित्र अमरजीत चंदन को भेजे गए एक ई-मेल में दिया था।

घोर ग़रीबी के बावजूद दिल की मांँ चिन्त कौर ने उन्हें समराला के स्कूल में पढ़ने भेजा। दिल को स्कूल का वातावरण तनिक भी न भाया। उन्होंने लिखा है,— “बड़ी क्लास में आने के बाद मैं कुछ नई चीज़ें सीखने लगा। मैं चित्र बनाता और फिर उसमें रंग भरता। एक दिन मैंने रविदास भगत का एक चित्र बनाया, जिसमें वे खड़े हुए थे। उनके चित्र के नीचे जूतों का एक जोड़ा और मोचियों के औजार दिखाए गए थे। क्लास के अध्यापक ने चित्र को बड़ी अजीब नज़रों से देखा और फिर वे तिरस्कार और मज़ाक के मिले-जुले भाव के साथ हँसे। अन्य विद्यार्थियों ने भी उनका साथ दिया। मैं वह चित्र स्कूल से अपने घर ले आया।”

सारी मुसीबतों का सामना करते हुए दिल ने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। वे अपने ख़ानदान के पहले मेट्रिक्यूलेट थे। उनकी माँ ने अपनी कान की बालियाँ बेच दीं ताकि वे कालेज में पढ़कर शिक्षक बन सकें। उन्होंने एक साल तक अपने गृहनगर के पास ए०एस० कालेज, खन्ना में पढ़ाई की। उसके बाद उन्होंने अपने शहर के नज़दीक बहलोलपुर के एस०एच०डी० कालेज में कनिष्ठ शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया। परन्तु उन्हें दो साल बाद यह पाठ्यक्रम पूरा किए बिना ही कालेज छोड़ना पड़ा। उन्होंने पंजाबी साहित्य में आनर्स पाठ्यक्रम, जिसे ‘ज्ञानी’ कहा जाता था, में भी दाखिला लिया, परन्तु कोर्स पूरा किए बग़ैर कालेज छोड़ दिया। अपने स्कूल के दिनों से ही दिल को आधे समय मज़दूरी कर, मवेशी चराकर या बच्चों को पढ़ाकर अपना खर्च चलाना पड़ता था। शायद यही कारण था कि वे मैट्रिक के बाद कोई परीक्षा पास नहीं कर सके।

घोर ग़रीबी के अलावा दिल को सामाजिक बहिष्करण और जाति आधारित दमन का सामना भी करना पड़ा। अपनी आत्मकथा ’दास्तान’ में उन्होंने इस तरह के अनेक कटु अनुभवों का ज़िक्र किया है। एक बार जब वे 5 या 6 साल के थे, तब उन्हें अपने गाँव के एक किसान के खेत से मारपीट कर इसलिए भगा दिया गया, क्योंकि वे खेत के कुएँ पर नहा रहे थे। एक अन्य मौक़े पर एक मीटिंग के दौरान जैसे ही उन्होंने पानी के जग की तरफ़ हाथ बढ़ाया, एक कामरेड, जो एक वर्चस्वशाली जाति के वरिष्ठ लेखक थे, ने तुरन्त जग को हटा लिया। उन्हें यह जानकार बहुत अपमान महसूस हुआ कि उनकी एक महिला सहपाठी, जिसे वे मन ही मन बहुत चाहते थे, की माँ ने उस गिलास को, जिसमें उन्हें चाय दी गई थी, बाद में आग में तपाकर शुद्ध किया था। और यह सब उस समुदाय में हो रहा था, जिसका यह दावा था कि उसमें जाति के लिए कोई जगह नहीं है। दिल के नज़दीकी दोस्त अमरजीत चंदन ने ’दास्तान’ की अपनी भूमिका “ए कम्पलीट स्टोरी ऑफ एन इनकप्लीट जर्नी” में बताया है कि दिल को क्या कुछ भोगना पड़ा और यह भी कि किस प्रकार उन्हें अपने मोहल्ले, अपने स्कूल, नक्सलवादी संगठनों और यहाँ तक कि पुलिस हिरासत में भी जातिगत हेकड़ी और दम्भ का सामना करना पड़ा।

यद्यपि दिल अपनी पढ़ाई पूरी न कर सके, आसपास की दुनिया को वे बहुत गहराई से समझते-बूझते रहे। वे अन्तिम साँस तक अपने आसपास की शोषक व्यवस्था की बारीकियों का पर्दाफ़ाश करते रहे। संघर्षों से भरे अपने जीवन में जो कुछ उन्होंने अनुभव किया उसे अभिव्यक्त करने के लिए उन्होंने कविताओं को अपना माध्यम बनाया। वे पूर्वी पंजाब के नक्सलवादी आंदोलन के सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक थे। परन्तु उनकी कविताएँ जनप्रिय होने के साथ-साथ गम्भीर भी थीं। जैसाकि उन्होंने अपनी आत्मकथा में बताया है, उन्हें पुलिस हिरासत में अमानवीय प्रताड़नाएँ दी गईं। वे लम्बे समय तक जेल में रहे। जेल में रहने के दौरान ही क्रान्तिकारी कविताओं का उनका पहला संग्रह ’सतलुज दी हवा’ सन् 1971 में प्रकाशित हुआ। जल्द ही उनकी कविता पंजाब के क्रान्तिकारी संघर्ष और ग़रीबों व दलितों के दुख और पीड़ा की प्रतिनिधि बन गई।

जेल से रिहाई के बाद दिल भूमिगत हो गए और उन्होंने अपने जीवन के 15 साल इसी तरह गुज़ारे। अपने संघर्ष और अपने तन को ज़िन्दा रखने के लिए उन्होंने इस दौरान कई काम किए। उन्होंने कभी किसी से मदद नहीं माँगी। जब भी कठिन शारीरिक श्रम वाले कामों से उन्हें कुछ फ़ुर्सत मिलती, वे लिखने बैठ जाते। उनके दो और काव्य-संग्रह ’बहोत सारे सूरज’ (1982) और ’सथर’ (1997) और आत्मकथा ’दास्तान’ भी प्रकाशित हुई। उनकी सभी कविताएँ ‘नागलोक’ नामक संग्रह में हैं, जिसका प्रकाशन पहले 1998 में और फिर 2008 में हुआ। नाग, भारत के मूल निवासी थे। ऐसा माना जाता है कि साँपों की पूजा करने वाला यह समुदाय आर्यों के आने से पहले भारतीय उपमहाद्वीप के एक बड़े हिस्से का शासक था। अपनी कविताओं में दिल नाग लोगों को बहुत शिद्दत से याद करते हैं। उनकी दो कविताएँ ‘शाम द रंग’ और ‘लम्मा लारा’ (लम्बा कारवाँ) नीचे प्रकाशित हैं। उनकी एक लम्बी अफ़साना-नुमा कविता ‘बिल्ला आज फिर आया’ उनकी मृत्योपरान्त सन् 2009 में प्रकाशित हुई।

दिल ने बहुत छोटी उम्र में कविताएँ लिखना शुरू कर दिया था। उस समय वे स्कूल में थे। उस समय लिखी गई उनकी कविताएँ प्रतिष्ठित पंजाबी पत्रिकाओं जैसे ’प्रीतलड़ी’, ’नागमणि’ और ’लकीर’ में प्रकाशित हुईं। यह उनके पहले कविता-संग्रह ’सतलुज दी हवा’ के 1971 में प्रकाशन से बहुत पहले की बात है। इससे यह साबित होता है कि कविता लेखन की जटिलताओं पर उनकी जन्मजात पकड़ थी। पत्रकार निरूपमा दत्त लिखती हैं, — “दिल का जीवन और उनकी कविता क्रान्तिकारी राजनीति का ईंधन था। दिल जाति और नस्ल से परे एक नई सामाजिक व्यवस्था का स्वप्न देखते थे।

यद्यपि निरूपमा दत्त दिल की कविताओं से परिचित थीं, परन्तु दिल के बारे में वे 1990 के दशक में ही जान सकीं, जब कई साल पंजाब के बाहर बिताने के बाद दिल समराला लौटे। तब तक पंजाब का नक्सलवादी आन्दोलन लगभग समाप्त हो चुका था और इस आन्दोलन में भाग लेने वाले सामान्य ज़िन्दगी में वापस लौट चुके थे। कुछ पूर्व नक्सलवादी सरकार, मीडिया, शैक्षणिक संस्थाओें आदि में उच्च पदों पर बैठ गए तो कुछ ने अपना व्यापार-व्यवसाय शुरू कर दिया। कई विदेशों में जाकर रहने लगे। परन्तु कामरेड दिल की मंज़िल समराला का उनका मिट्टी का घर और उनके विचारों और दर्शन का किला था। वे एक सच्चे ज्ञानयोगी थे। “वह एक तन्हाई पसंद आदमी था,” — समराला में उनके निकट मित्र गुलराज मोहम्मद गोरिया ने दिल की मौत के कुछ दिनों बाद मुझसे कहा था। दिल ने विदेशों में रह रहे कुछ कामरेडों की मदद से समराला में अपने घर के नज़दीक बस अड्डे पर चाय की दुकान खोल ली। इसी दौरान वे अपने शहर के श्मशान घाट में घण्टों अकेले बैठे रहते थे। इसका कारण कोई नहीं जानता। निरूपमा दत्त की दिल से मुलाक़ात इसी दौरान हुई और तब से वे अख़बारों और पत्रिकाओं में उनके बारे में लिखती रही हैं।

सन् 2007 में दिल की बीमारी से हुई लाल सिंह दिल की मृत्यु के बाद निरुपमा दत्त ने उनकी आत्मकथा और कुछ कविताओं का अनुवाद किया, जिससे दिल को पंजाबी-भाषी क्षेत्र से बाहर पहचान मिली। सन् 2017 में दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व शिक्षक त्रिलोकचन्द घई ने दिल की सौ कविताओं का अँग्रेज़ी में अनुवाद किया। यह संग्रह “लाल सिंह दिल : सिलेक्टिड पोयम्स – एक्सक्लूजन, डिप्राईवेशन एंड नथिंगनेस” शीर्षक से एल०जी० पब्लिशर्स दिल्ली द्वारा प्रकाशित है। इनमें से पाँच कविताओं को प्रतिष्ठित ब्रिटिश साहित्यिक पत्रिका ‘मार्डन पोयटरी इन ट्रांसलेशन’ (एमपीटी) के ‘ट्रांजीशन्स’ (श्रृंखला 3, क्रमांक 18) अंक में 2012 में पुनर्प्रकाशित किया गया। इनमें से दो कविताओं को एमपीटी की स्वर्णजयंती के अवसर पर सन् 2016 में प्रकाशित “सेंटर्स ऑफ केटाक्लिज्म” (ब्लड एक्स बुक्स) में शामिल किया गया। घई के अनुवाद के बारे में कवि और एमपीटी के संपादक डेविड काउंसटेंटीन ने लिखा, “त्रिलोकचन्द घई की अंग्रेजी अपने उद्देश्य में कामयाब है। अनुवादक समय और स्थान की सीमाओं से परे लोगों को एक दूसरे से जोड़ते हैं। घई के अनुवादों में एक लय है, एक स्वर है, जो संगीत की तरह अंग्रेजी के पाठकों के दिलों को भी उसी तरह छुएगा जैसा कवि अपनी मातृभाषा में करता है।” पंजाबी कवि और आलोचक हरभजन सिंह ने लिखा, “दिल की कविताएं हमें आनंद नहीं देतीं। वे हमें शर्मिंदा करती हैं। जो कविताएं हमें सुख और आनंद देती हैं दरअसल वे पहले से स्थापित मूल्यों को मजबूती देने वाली होती हैं। शर्मिंदा करने वाली कविताएं व्यक्ति को उसकी जड़ों से उखाड़ देती हैं और उसे अपने आप को नया बनाने की चुनौती देती हैं।” अमरजीत चंदन का कहना है, “लाल की कविताओं के शब्द चित्र हमें अमृता शेरगिल की पेंटिंग्स की याद दिलाते हैं। उनकी कविताओं में कठिन जिंदगी, गरीबी, अकेलापन, संघर्ष, कमजोर और लाचार के हालात के प्रति शोक और मेहनतकशों की जीत में आस्था के बिम्ब हैं। उन्होंने घंडीला और टपरीवासी व लकड़ी बीनने वाली घुमंतु बंजारा लड़कियों पर बहुत कुछ लिखा है। ‘शाम द रंग’ और ‘लम्मा लारा’ शीर्षक उनकी कविताएं, जो नीचे प्रकाशित हैं, गंडीला और टपरीवासियों के जीवन का अत्यंत जीवंत वर्णन करती हैं।

शाम का रंग

शाम का रंग फिर पुराना है
जा रहे हैं बस्तियों की ओर फ़ुटपाथ
जा रही झील कोई दफ़्तर से
नौकरी से लेकर जवाब

पी रही है झील अपनी ही प्यास
चल पड़ा है शहर कुछ गाँव की राह
फेंक कर कोई जा रहा है सारी कमाई

पोंछता आ रहा कोई धोती से ख़ून
कमज़ोर पशुओं की देह से आरे का ख़ून
शाम का रंग फिर पुराना है

(अनुवाद : प्रितपाल सिंह)

लम्बा कारवाँ

ग़ैर की ज़मीन पीछे छोड़
गालियों और झिड़कियों की बेइज़्ज़ती से लदा-फदा
लम्बा कारवाँ चल पड़ा है

शाम की लम्बी होती परछाइयों की तरह
बच्चे गधों की पीठ पर सवार हैं
पिता अपनी गोद में उठाए हुए हैं कुत्ते
माएँ ढो रही हैं देगचियाँ
अपनी पीठ पर
जिनमें सो रहे हैं उनके बच्चे

लम्बा कारवाँ चल पड़ा है
अपने कन्धों पर अपनी झोपड़ियों के बाँस लादे
कौन हैं ये
भुखियाए आर्य

हिन्दुस्तान की कौनसी ज़मीन पर
रहने जा रहे हैं ये
नए लड़कों को कुत्ते प्यारे हैं
महलों के चेहरों का प्यार
वो कैसे पालें
इन भूखों ने पीछे छोड़ दी है
किसी ग़ैर की ज़मीन
लम्बा कारवाँ चल पड़ा है।

(अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)

दिल ने अनादि काल से समाज में डेरा जमाए जाति-आधारित बहिष्करण और दमन के अन्य स्वरूपों की आँखों में आँख डालकर असहज करने वाले प्रश्न पूछे। मौत के बाद के बाद भी जाति हमारा पीछा नहीं छोड़ती। उनकी कविता ज़ात इसी सत्य को उद्घाटित करती है।

जाति

मुझसे प्यार करती है
गैर जाति की लड़की
जबकि हमारे सगे तो
मुर्दे भी
एक जगह नहीं जलाते ।

(अनुवाद : प्रितपाल सिंह)

दमनात्मक और वर्चस्ववादी सामाजिक ढाँचे के विरुद्ध उठने वाली आवाज़ों को उनकी कविता दिलेरी से रेखांकित करती है। अपनी एक अन्य बहुचर्चित कविता ‘शब्द’ में वे दमनकारी व्यवस्था के गर्भ में छुपे विद्रोह के स्वर को अभिव्यक्त करते हैं

शब्द

शब्द तो कहे जा चुके हैं
हमसे भी बहुत पहले
और हमसे भी बहुत पीछे
हमारी हर जुबान
हो सके तो काट लेना
पर शब्द तो कहे जा चुके हैं ।
(अनुवाद : सत्यपाल सहगल)

दिल की दृष्टि दूर तक जाती थी, परन्तु अहं उन्हें छू तक न गया था। उन्होंने कभी नाम कमाने की नहीं सोची। वे अनजान बने रहकर काम करते रहे। प्रगतिशील तबके द्वारा पंजाब के विभिन्न स्थानों पर आयोजित किए जाने वाले कार्यक्रमों में वे हमेशा शिरकत करते थे, परन्तु अपनी उपस्थिति का अहसास किसी को नहीं कराते थे। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक दिन वे अमरदीप सिंह शेरगिल मेमोरियल कॉलेज, मुकन्दपुर (एसबीएस नगर, पंजाब) के सेमिनार हॉल के दरवाज़े की बग़ल में चुपचाप खड़े थे। न तो उन्होंने कोई प्रयास किया कि लोग उन्हें पहचानें और ना ही कार्यक्रम में भाग लेने आ रहे विशिष्ट अतिथियों ने उनपर कोई ध्यान दिया। एक प्रतिभागी ने, जिनके साथ मैं कार्यक्रम में गया था, मुझसे कहा कि दिल अपने में मस्त रहते हैं। उन्हें कभी किसी ने अपनी वाहवाही करते या अपनी व्यक्तिगत परेशानियाँ बताते नहीं सुना। वे अन्तर्मुखी थे, परन्तु उनके कमज़ोर शरीर के अन्दर क्न्तिराकारी विचारों और आदर्शों का ज्वालामुखी था। वे अपने जीवनकाल में क्रांन्तिकारी राजनैतिक परिवर्तन देखना चाहते थे। जो निम्न में भी निम्न समझे जाते थे, उनके दुखों को दूर करने के लिए वे सदा तैयार रहते थे। निरुपमा दत्त ने लिखा है, — “दिल एक ऐसी क्रान्ति के पक्षधर थे, जो सारी बेड़ियों को तोड़ दे। अपनी कविताओं में वे एक संवेदनशील तिरस्कृत बालक की तरह नज़र आते हैं, जो ईश्वर से बात करता है। उन्हें पूरा भरोसा था कि एक दिन वसन्त आएगा।”

अपने समकालीन क्रान्तिकारी कवियों से लाल सिंह दिल इस मामले में अलग थे कि उनके सरोकार केवल समाज के निम्नतर तबके तक सीमित नहीं थे। वे उनके लिए भी चिन्तित थे, जिन्हें समाज ने ठुकरा दिया था, जो हाशिये पर थे और घुमन्तू जीवन जीने के लिए मजबूर थे। उन्हें भूमिहीन श्रमिकों, रोज़ कमाने-खाने वालों और घुमन्तू महिलाओं और पुरुषों से गहरी सहानुभूति थी, विशेषकर काले कपड़े पहनने वाली उन लड़कियों से, जो अपनी फूस की झोपड़ी के बाहर बने चूल्हे में जलाने के लिए लकड़ियाँ इकठ्ठा करती फिरती थीं। यद्यपि वे उच्च शिक्षित नहीं थे परन्तु समाज की कड़वी सच्चाइयों ने उन्हें ज़िन्दगी के विभिन्न पहलुओं के बारे में कई सबक सिखाए थे। स्कूल, कॉलेज, नक्सल आन्दोलन और पुलिस हिरासत के दौरान और विभिन्न धर्मों के लोगों के साथ उठने-बैठने से मिले अनुभव ने उनकी कविता को समृद्ध किया और उसे नए अर्थ, नए क़िस्से, नए चिन्ह और नए प्रतीक दिए। इससे उनके पाठकों को, जो दृष्टिगोचर है उससे आगे देखने का मौका मिला और ज़िन्दगी को दमित वर्गों के परिप्रेक्ष्य से समझने का भी। उनकी कविता समतावादी सामाजिक व्यवस्था के निर्माण के लिए उनके संघर्ष को अभिव्यक्त करती है। वह बेज़ुबानों और बदक़िस्मतों की ज़ुबान है।