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बेजुबान / आरती 'लोकेश'

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चुप था वह या कि था बेजुबान,
उम्र भी थी उसकी कुछ नादान,
धो-धोकर टोकरी में रख देता,
जूठी प्यालियाँ और चायदान।

जाने कहाँ रहता उसका ध्यान,
कभी निकलती चाय का उफ़ान,
हड़बड़ाकर घबरा होश में आता,
खौलती चाय फिर से रहा छान।

देखता हसरत से कुछ सामान,
कोयले से बने अनगढ़ निशान,
धरती पर लिखता कोई अक्षर,
कहता कुछ वह अपनी जुबान।

बार-बार पोंछता कुछ अनजान,
आँसू या पसीना न थी पहचान,
मैली-कुचैली कमीज़ की बाँह,
मिटाती उम्मीदों के सारे मकान।

राष्ट्रीय महामार्ग पर वह दुकान,
आते दिनभर कितने मेहमान,
दौड़-दौड़ वह चाय पिलाता,
जिससे उतारते वे रोज़ थकान।

एक फरिश्ते ने किया एक काम
हाथ थाम पूछा स्कूल का नाम,
आँख फाड़े रहा चकराया हुआ,
बताने लगा चाय कप का दाम।

पाठशाला का वह शिक्षक प्रधान,
प्रतिक्रिया से हुआ वह बहुत हैरान,
संकेत किया लिखे अक्षर ओर,
देखना चाहा था मोहक मुसकान।

चेहरा खिला कोई अपना जान,
बेजुबाँ को जुबाँ और दिया मान,
कंधे दिया बस्ता हाथ दी कलम,
शिक्षा का दूत वह था भगवान।